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तृतीय खण्ड : प्रथम अध्याय शरीर को जो कुछ भी लघु करे लघन कहलाता है, जिसमे रूक्षता, खरता, विशदता हो और शरीर को रूखा करता हो रूक्षण कहलाता है, स्निग्ध, विलयनशील, मृदु एव क्लेद कारक द्रव्य शरीर के स्नेहन मे आते है, स्तभ ( जकडाहट), गुरुता और शीत को दूर करने वाला एव स्वेद लानेवाला कर्म स्वेदन कहा जाता है, शरीर की गतिमान् एवं चल वस्तुओ को रोकनेवाली क्रिया जो निश्चित रूप से रोकने में समर्थ होती है स्तंभन कहलाती है।
लखनं बृंहणं काले रूक्षणं स्नेहनं तथा। स्वेदनं स्तम्भनञ्चैव जानीते य स वै भिषक् ।। यत्किंचिल्लाघवकरं देहे तल्लङ्घनं स्मृतम् । बृहत्त्वं यच्छरीरस्य जनयेत्तञ्च बृहणम् ।। रौक्ष्यं खरत्वं वैशद्यं यत् कुर्यात्तद्धि रूक्षणम् । म्नेहनं स्नेहविष्यन्दमार्दवक्लेदकारकम् ।। स्तम्भगौरवशीतनं स्वेदनं स्वेदकारकम् ।
(च सू २२) आचार्य सुश्रुत ने लिखा है--सम्यक् प्रकार से प्रयुक्त किये गये सशोधन, सशमन, आहार एव विहार रोगो का निग्रह करते है ।
"तेषां संशोधन-संशमनाहाराचारा सम्यक् प्रयुक्ता निग्रहहेतव भवन्ति ।"
(सु सू १ ) चरकाचार्य ने लिखा है कि सशोधन, सशमन और निदान का परिवर्जन ( कारण का दूर करना ) यही तीन कर्म प्राय रोग को चिकित्सा मे बरते जाते है। रोगानुसार प्रत्येक मे इन उपक्रमो का यथाविधि उपयोग करना चिकित्सक का कत्तव्य है।
संशोधनं संशमनं निदानस्य च वर्जनम् । एतावद् भिपजा कार्य रोगे रोगे यथाविधि ॥
(च वि ८) सशोधन की व्याख्या ऊपर हो चुकी है। सशमन के बारे मे इस आचार्य के मत से दो भेद होते है। १ वाह्य तथा २ आभ्यतर । वाह्य सशमन मे आलेप, परिषेक, कवल और गण्डूप आदि का ग्रहण हो जाता है । आभ्यतर सशमन द वाचन, लेखन, बृहण एव विपप्रशमन आदि कर्मों का समावेश है। ' आहार चार प्रकार के होते है १ पेय २ भक्ष्य ३ लेह्य और ४ चोष्य । क्रिया या गुण की दृष्टि से विचार किया जावे तो आहार तीन प्रकार के होते है-१ दोषप्रशमन २ व्याधिप्रशमन ३ स्वास्थ्यकर ।