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चौबीसवॉ अध्याय .
अपस्मार प्रतिषेध अपस्मार-(मगो ) एक मानस रोग है, इसमे भी उन्माद के समान मस्तिष्क में कोई प्रत्यक्ष विकृति दृष्टिगोचर नही होती है। ज्ञान के विनाश की दृष्टि में यह उन्माद सदृश ही है, भेद यह है कि उन्माद में बुद्धि-विभ्रम होता है जिसले रोगी देखता या सुनता हुआ भी उसके यथार्थ तत्त्व को ग्रहण करने मे असमर्थ रहता है । उन्मत्त व्यक्ति वातें करता है किन्तु सव असम्बद्ध, इसी प्रकार वह खातो भी है किन्तु उसके स्वाद का ज्ञान प्राय. उसको नही होता । अपस्मार का रोगी एकदम वेहोश हो जाता है उसको दौरे के काल मे कुछ भी ज्ञान नहीं रहता इसके अतिरिक्त वह किसी प्रकार की क्रिया भी नही कर पाता । इस तरह उन्माद मे बुद्धि-विभ्रम तथा अपस्मार मे बुद्धि-नाश पाया जाता है। अपस्मार रोग का दौरा होता है । यह दौरा मावस्थिक एव किंचित् काल स्थायी ( या थोडे देर का होता है । फिर वह चेतना मे आ जाता और सामान्य व्यक्ति जैसे दिखलाई पड़ता है-इनमे दौरे का समय भी प्राय निश्चित सा ही रहता है। यह बात उन्माद में नही होती उन्माद का आक्रमण अस्थायी न होकर स्थायी म्वल्प का होता है, रोगी अचेन या वेहोश प्राय कभी नहीं होता है।
अपस्मार-चिन्ता-काम-क्रोध-शोक तथा उद्वेग जैसे मानसिक कारण एवं गिरोभिधात तथा मस्तिष्कावरण शोथ ( Menigitis ), मस्तिष्कगत रक्तस्राव ( Apoplexy ) तथा मस्तिष्कावुद ( Cerrbral Tumour') के कारणो से सत्त्व के दुर्बल, रज तथा तम की प्रबलता होने पर उत्पन्न होता है । स्वभावत. दखल मन ( हीन सत्त्व ) वलि व्यक्तियो मे यह अधिक पाया जाता है। उपर्यक्त कारणो से कपित हए दोप मनोवह स्रोत ( मस्तिष्क, मस्तिष्कगत इन्द्रियाधिठान तथा वात नाडियो) मे आश्रित होकर अपस्मार रोग को उत्पन्न करते हैं।? - १. चिन्ताशोकादिभिर्दोपाः क्रुद्धा हृत्स्रोतसि स्थिता ।। .
कृत्वा स्मृतेरपध्वसमपस्मारं प्रकुवते ।। तम प्रवेश सरम्भो दोषोद्रेकहतस्मृते । अपस्मार इति ज्ञयो गदो घोरश्चतुर्विधः ॥ ( मा. नि ) स्मतेरपगम प्राहुरपस्मार भिषग्विद । तम प्रवेशं वीभत्सचेष्ट . धीसत्त्वसप्लवात् ।। (च चि १० )