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भिषकर्म-सिद्धि
तथा तिक्त द्रव्यो का सेवन निन्द्य है । सम्पूर्ण प्रकार के मद्य और मास से निवृत्त, हिताहार-विहार करने वाला, सयमी और पवित्र आचरण का व्यक्ति सत्त्ववान् होता है ।
अर्थात उसका सत्त्व या मन वढा दृढ होता है फलत ऐसे व्यक्तियो को निज अथवा आगन्तुक उन्माद का रोग नही होता है ।
उपसंहार - उपर्युक्त चिकित्सा क्रम को यथावश्यक यथास्थान वरते । साथ मे इस प्रकार की व्यवस्था करे
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उन्माद गजकेशरी रस २-४ रत्तो की एक मात्रा गोघृत के साथ प्रात सायम् दे । सारस्वतारिष्ट भोजन के बाद दे । बडे चम्मच से २ चम्मच पानी मिलाकर | रात्रि मे सोते वक्त सर्पगंधा घनवटी २ गोली दे । यदि घनवटी तैयार न हो तो सर्पगंधा चूर्ण २ माशा, गुलकंद १ तोले के साथ खिलाकर गाय का दूध पिलावे । सिर पर लगाने के लिये हिमाशु तैल या शतधौत घृत की मालिश करावे | होगी वलवान् हो तो नित्य हर दूसरे या तीसरे दिन एरण्ड तल एक छटाक की मात्रा मे दूध में डालकर पिलावे । खाने में चावल का भात या गेहू की रोटी और दूध देना चाहिये । पीने के लिये शर्वत के रूप मे कई बार श्वेत कुष्माण्ड ( पेंठे ) के बीज और गूदा को निकाल कर पीस कर मिश्री मिला कर कई बार देना चाहिये । यदि रोगी बहुत उद्धत हो तो उसको एक निर्जन स्थान में बन्द कमरे मे रखना, डरवाना, नस्य ( कायफर के चूर्ण का नस्य ) या शिरीपाद्यजन का प्रयोग करते हुए अच्छा लाभ देखा जाता है । उन्मत्त रोगी को ठंडे जल मे खूब स्नान कराना चाहिये । उसको सबसे उत्तम लाभ जल की धारा सिर पर नल की टोटो खोल कर देने से होता है - इतनी धार से स्नान करावे और तब तक स्नान करावे जब तक कि वह शीत से काँपने न लगे । उन्माद का रोगी किसी एक व्यक्ति से डरता है सब से नही, खास कर उस व्यक्ति से जिसने उने एक वार मार दिया है । वह दूसरे से दवा भी नही खाना चाहता जब तक कि वह व्यक्ति सामने न खड़ा हो। इसका भी ध्यान रखना चाहिये । उन्मत्तो मे दवा का खिलाना भी एक कला है । उच्मत्त बिना भय न खाना खाता है और न ओपधि । हर बात में उसके साथ जबर्दस्ती ही करनी पडती है ।
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