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भिषकर्म-सिद्धि
1 साधारणतया अपस्मार
आधुनिक ग्रंथों में अपस्मार के ( Epilepsy ) दो भेद प्रमुखतया मिलते हैं । औपविक यह बाघात, हृदय एवं रक्तवाहिनी के रोग, मस्तिष्कगत रोग तथा रोगों की विषमयता में पाया जाता है । २. अनैमित्तिक या अज्ञात कारणजन्य यही शुद्ध अपस्मार नामक मानस- रोग है कहने से इसी का दोष होता है । इसमें मस्तिष्क में कोई अंगगत विकृति नही दिखाई पड़ती है। वैज्ञानिको ने अब तक रोग के कारण का निश्चित कारण नहीं स्थिर दिया है | उनका मत है कि नमवत्तं ( Metobolism ) के दोपो से शरीर में एक अतस्य विष ( Choline ) बनता है जिसका प्रभाव मस्तिष्क पर होते ने रोग का दौरा होता है और वह नि मंत्र होकर गिर पढ़ता है । यदि प्रभाव घोडा हुवा दो लघु अपस्मार ( Petit Mal ) और प्रभाव के तीव्र होने पर तीव्र स्वरूप का नृपस्मार ( Grand Mal ) का रूप पाया जाता है । इस रोग में बंध- परम्परा की प्रवृत्ति पाई जाती है । रोग का प्रारम्भ वाल्यावस्या से हो जाता है ।
प्राचीन निदान के अनुसार वार्तिक, पैत्तिक, ग्लेष्मिक तथा नान्निपातिक भेद मैं अपस्मार के चार प्रकार होते हैं । इस रोग का दौरा एक मास के बाद, पन्द्रह दिनों के अंतर या बारह दिनों के अन्तर पर अथवा सप्ताह के बाद जाते रहते हैं । बहुत वह जाने पर नित्य भी या सक्ता है |
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अपस्मार एक कष्टसाध्य रोग है-नवीन और एक्दीपज तो कुछ साध्य भी होते हैं, परन्तु विदोषज, और दुर्बल रोगी के अपस्मार असाध्य हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त जिस रोगी में वारम्वार आक्षेप बाते हो, जो अत्यन्त क्षीण हो, जिसकी भृकुटियाँ टपर को चढ़ जायें और जिसकी न भी विकृत हो जायें तो ये अपस्मार भी साध्य हो जाते है।
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क्रियाक्रम - वनज अपस्मार में वस्तिकर्म, पित्तज में रेचन तथा ग्लेष्मिक में वमन कर्म के द्वारा शोधन करना चाहिये । अपस्मार में प्रथम वमन के द्वारा ग्रोवन उत्तम रहता है। इन कर्मों से अच्छी तरह से गोवन हो जाने के अनन्तर रोग की निवृत्तिसम्बन्धी वामन रोगी को देते हुए अम्म्मार को दूर करने के लिये निम्न लिखित शमन के उपचारों के द्वारा चिकित्सा करनी चाहिये । २
१ सर्वतः समस्तैश्च विज्ञेयस्योपजः । अपस्मार म चासाध्यो य. लीगम्यानवच य ॥ प्रतिस्फुरन्तं बहुध चीणं प्रचलित ध्रुवम् । नेत्राभ्याञ्च विकुर्वाणमपन्मारो विनाशयेत् ॥ ( च० चि०१० )
२ वानिक वलिमिः प्राय. पैत्तं प्रायो विरेचनः । चमनप्रायैरपस्मारमुपाचरेत् ॥ ( च० पि० )
कष्मिकं