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चतुर्थ खण्ड : उन्तालीसवाँ अध्याय ६३७ तेल में मिलाकर लेप करना । ४ कठ, मूली के बीज, प्रियङ्गु, सरसो, हल्दी इन द्रव्यो को समभाग में लेकर चूर्ण करे, उसमे छठा भाग केशर मिलावे, फिर काजी, गोमूत्र या तक्र के साथ पीस कर लेप करने से बहुत वर्ष के सिध्म मे भी लाभ होता है । ५ आंवला, राल और यवक्षार को काजी मे पीस कर उबटन करना । ६. अमलताश की पत्ती को काजी के साथ पीसकर लगाना। ७. मूली का वीज, सफेद सरसो, नीम की पत्ती और गृहधूम समभाग मे लेकर पानी से पोसकर मक्खन मिलाकर पूरे शरीर पर लगावे फिर गर्म जल से स्नान करे तो तीन दिनो मे सिध्म ( सेंहुवा ) दूर होता है।'
८. कपास की पत्ती, काकजघा और मूली के बोज को मछे से पीसकर मगल के दिन उबटन लगाने से सिध्म शोघ्र दूर होता है ।२।।
कच्छु-काठ-एक प्रकार की दद्रु या विचचिका जो अधिकतर गुह्यागो पर चूतड, वृषण एवं गुदा प्रभृति उपागो मे होता है। वृपणकच्छु (Scaotol Ecrsyma) एक प्रसिद्ध रोग है-जो प्राय. हठी स्वरूप का होता है। है । इसमें दो लेपो का उपयोग उत्तम रहता है-१ बाकुचों, कासमर्द के बीज, चक्रमर्द बीज, हल्दी, आमाहल्दो, सेंधानमक । समभाग मे लेकर चूर्ण बनाकर । मठे या काजी से पीसकर लेप करना । २ अडूसे के कोमल पत्ते और हल्दी को लेकर गोमूत्र में पीस कर लेप करना। कुष्ठ रोग मे व्यवहृत होनेवाले तैल
० अर्क तैल-सरसो का तेल १ सेर, अर्कपत्रस्वरस ४ सेर, मन शिला तथा हल्दी को सम मात्रा में लेकर पीसकर 1 कल्क से यथाविधि तैल सिद्ध कर ले । यह खुजली मे लाभप्रद रहता है ।
करवीर तैल-श्वेत करवीर (श्वेत कनेर ) की जड का क्वाथ तथा गोमूत्र ४-४ सेर, वायविडङ्ग और चित्रक की छाल २-२ छटांक, तिल तैल १ सेर । यथाविधि पाक करके अभ्यग । सभी प्रकार त्वक् रोगो मे उपयोग ।
कृष्ण सर्प तैल-कृष्ण सर्प वसा को सोमराजी तेल में मिलाकर लगाने से गलत् कुष्ठ में लाभप्रद होता है। १ बीज मूलकज निम्बपत्राणि सितसर्पपान् ।
गृहमं च सम्पिज्य जलेनागं प्रलेपयेत् ॥ उद्वर्त्य नवनोतेन क्षालयेदुष्णवारिणा ।
व्यहादनेन सिध्मानि शाभ्यन्त्याशु शरीरिणाम् ॥ २. कार्पासिकापत्रविमिश्रकाकजधाकृती मूलकवीजयुक्त.। । तक्रेण लेप क्षितिपुत्रवारे सिऽमानि सद्यो नयति प्रणांशम् ।। (यो. र.)