________________
१२७
द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय व्यापद चिकित्सा ( Complications and Treatment ):
अयोग:--यदि ठीक प्रकार का शोधन (.वचन, विरेचन ) न हो पाया हो, तो रोग और नेगी के तीन प्रकार के बलो का विचार करते हुए पुनः औपधि की माया पिलायें । यदि विशोधन के लिए दी गई दवा निकल आई हो, न पच पाई हो या पच गई हो और दोपो का निर्हरण करना आवश्यक हो तो पुन. वही या गरी दवा को पिलाना चाहिए । यदि वमन, विरेचन के द्वारा शोधन सतोषजनक नहीं हुना हो तो शेप दोपो का गमन विविध भोजन और पेय द्रव्यो के द्वारा परना चाहिए । यदि रोगी दुर्बल हो या उसके दोष दुर्वल हो या पूर्व मे शोधन हो चुका हो और जिसका कोष्ठ ज्ञात न हो ऐसे व्यक्ति को मृदु औपधि ही पिलानी चाहिए। यदि रोगो दुबल परन्तु उसके दोप अति बलवान हो तो उसमे भीमा ओपचियो पा वार-बार प्रयोग करके गोवन कराना चाहिए। क्योकि तीक्ष्ण गोधन से प्राण जाने का भय रहता है। यदि ओपधि दोपो से रुद्ध हो जाय न ऊपर से निकले न नीचे से. साथ ही रोगी मे अगमर्द और टकारे आने लगे तो गर्म जल पीने को दे और स्वेदन करे। कई वार प्रात:काल मे पिलाई दवा श्लेष्मा से रद्ध होकर उर स्थल पर पड़ी रहती है और उस समय शोधन नहीं हो पाता पुन कफ के क्षीण होने पर सायकाल मे रात्रि मे शोधन होता है।
अत इस बात का ध्यान रखते हुए प्रतीक्षा करनी चाहिए । विरेचन के लिए दी हुई मोपधि का ऊर्ध्वगमन हो या जीर्ण हो गयो हो तो लवणयुक्त स्नेह देकर वातानुलोमन करे । यदि किसी शोधन के प्रयोग से लालास्राव, हृल्लास, विष्टम्भ, लोमहर्प होने लगे तो ओपवि कफ से आवृत हो गई है ऐमा समझ कर उसके लिए तीक्ष्ण, उष्ण, कटु प्रभृति, कफन्न उपचार करना चाहिए। यदि क्रूर कोष्ठ रोगी हो और उसका स्नेदन भलीभांति हो गया हो तो विना विरेचन औषधि के प्रयोग के ही उसे लघन करा देना चाहिए। इससे उसके स्नेहसमुत्थ श्लेष्मा का नाश हो जाता है।
जो व्यक्ति रूक्ष शरीर वाले बहुत वायु युक्त, क्रूर कोष्ठ (Contispated Bowels) दोप्ताग्नि वाले होते है । उनमे रेचक औपधियां विना किसी प्रकार की क्रिया के ही पच जाया करती है । इसमे यदि विरेचन कराना हो तो प्रथम वस्ति देकर पश्चात् विरेचन देना चाहिए । वस्ति से प्रवर्तित दोषो को विरेचन के द्वारी शीघ्र हरण करना सभव रहता है।
रूक्ष भोजन करने वाले, नित्य परिश्रम करने वाले एव दीप्त अग्नि वाले अक्तियो के दोप अपने आप ही प्राकृतिक-कर्म, वात, आतप, अग्नि से नष्ट हो