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चतुर्थखण्ड : अड़तीसवाँ अध्याय
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आज कल शिरावेध का कार्य प्रचलित नहीं है - यह एक शोध का विषय है । इस दिशा मे इगित मात्र करना ही लक्ष्य है |
ओषधि - श्लीपद रोग मे सशमनार्थ बहुत प्रकार की ओपधियो का व्यवहार होता है और ये सभी दृष्टफल भी है ।
१ दारु हरिद्रा एवं रक्त चंदन- इन दोनो औषधियो मे से किसी एक का या दोनो को समभाग में लेकर कपाय बना कर २ तोले द्रव्य, ३२ तोले जल मे खोलाकर ८ तोला शेप रख कर मधु के साथ सेवन । यह परम उत्तम योग हैं ।
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२ सर्षप तैल- - का स्वतंत्र १ तोले की मात्रा मे पीना | लम्बे समय तक प्रयोग करने से श्लीपद रोग से निवृत्ति होती है । सर्षप तेल का बाह्य प्रयोग अभ्यग के रूप में या सर्पप बीज का लेप भी उत्तम रहता है ।
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३. पूतिकरंज - डिठउरी की पत्ती का रस ६ माशे से १ तोला स्वतन्त्र या सर्पप तेल में मिला कर सेवन ।
४. पुत्रजीवक - स्वरस का भी उपर्युक्त प्रकार से सेवन लाभप्रद रहता है । वृद्धदारुक - विधारे के वीज या छाल का चूर्ण ३ माशे की मात्रा मे
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१६ छटाक गोमूत्र के अनुपान से, सर्पप तेल के अनुपान से सेवन उत्तम रहता है । ६ हरिद्रा - - हरिद्रा चूर्ण या हरिद्रा स्वरस ३ माशे, पुराने गुड १ तोले के माथ सेवन करके गोमूत्र का अनुपान करना उत्तम रहता है ।
७ गुडूची- गिलोय का स्वरस १ तोला, कटु तेल ( सर्पप तेल ) १ तोला मिलाकर प्रात काल मे लेना ।
८ पिण्डारक -- नामक वृक्ष के ऊपर लगे हुए बन्दाक ( बादे ) के चूर्ण का १-२ माशे घृत के साथ सेवन अथवा पिण्डारक की जड को सूत्र मे बाध कर पैर मे बाधना उग्र श्लीपद मे भी लाभप्रद रहता है ।
६. गोधावती - मूल और उडद की पिष्टि बनाकर सरसो के तेल मे पका -कर सेवन करने से श्लीपद ज्वर में लाभ होता है ।
१० शाखोटक - सिहोर की छाल का २ तोले की मात्रा मे कपाय बना कर सेवन करना, इस क्वाथ से प्रारंभ मे वमन हो सकता है। इसका स्वतंत्र या गोमूत्र मिला कर उपयोग करे । इसके ४० दिनों के सेवन से पुराने श्लीपद मे भी लाभ होता है ।
११ खदिर और नीम की छाल का चूर्ण बनाकर ३ मारो की मात्रा में गोमूत्र के अनुपान से सेवन ।
वृद्धदारक समचूर्ण - त्रिकटु एवं त्रिफला पृथक पृथक, चव्य,