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________________ भियम-सिद्धि उत्तम रहता है। पीने में भी इस तेल का उपयोग हो सकता है। मात्रा १-२ तोला। ६. श्लीपदगन खुजली को बान्त करने के लिये मक्खन और मधु का लेप उत्तम रहता है। कांजी एव नरसो के तेल का लेप गत-कफज वेदना को कम करता है। ब्लीपद में पिनाधिक्य होने पर दाह के यमन के लिये संजिष्ठादि लेप-मजीठ, मुलेटी, रास्ना, हंस की जड और पुनर्नवामूल इमको समभाग में लेकर काजी के माथ पीस कर लेप करना चाहिए । विविध प्रकार के श्लीपदो में भी इस लेप का उपयोग किया जा सकता है। - रेचन-उलीपद रोग मे कोप्टनुद्धि होती रहे। रोगी में विवध न हो इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए । एतदर्थ त्रिफला, हरीतकी चूर्ण, मध्यप्टोचूर्ण, नमल्ताग, गोमूत्र तथा एरण्ड तेल का प्रयोग रोगी में करना चाहिये । १. लीपद के दौर में त्रिफला कपाय बनाकर उसमें २॥ तोला गोमूत्र मिलाकर दिन में एक-दो बार देना उत्तम होता है । इलीपदजन्य अण्डबृद्धि म यह एक उपयोगी योग है। २ गोमूत्र में भिगोयी हुई या पकाई हुई हरीतकी को एरण्ड तैल में भूनकर चूर्ण बनाकर ३ माशे की मात्रा में स्वतंत्र या मेंधा नमक मिला कर चूर्ण बना कर मिथित ४ मागे की मात्रा में जल के साथ या गोमूत्र के अनुपान के साथ नित्य मेवन करने से इलीपद रोग में वडा ही उत्तम लाभ देखने को मिलता है। इस योग का उपयोग विविध प्रकार को बण्डवृद्धि, मात्रवृद्धि तथा श्लीपद में दृढता पूर्वक किया जा सकता है । प्ठीला वृद्धि ( Enlarged Prostate ) मे जो प्राय वृद्धिावस्था में पाया जाता है इस हरीतकी योग मे उत्तम लाम होता है । रक्तावलेचन या शोणित मोक्षण-लीपद में निरावेध का वडा माहात्म्य चिक्मिा में बनलाया गया है। वातिक ग्लीपद मे यदि पैर का हो तो गुफवि के ऊपर वाली मिरा का वेप, पत्तिक श्लोपट में गुल्फ की अध सिरा का वध और श्लंटिमक दलीपट में क्षिप्रमर्म को बचाते हा दगुट के समीप की निगवेब मरने की विधि बतलाई गई है। १ त्रिफलाक्याथगोमनं पिवेत्रातरतन्द्रित । व फवातोनवं हन्ति स्वययु वृष्णोस्थितम् ।। • गोमूत्रमिद्धा न्युतलभृष्टा हरीतरी मैन्धवचूर्णयुक्ताम् । सादेन्नरः कोप्टन लानुपाना निहन्ति बृद्धि चिरजा प्रवृद्धाम् ।। गंधर्वलभृष्टा हरीतकी गाजलेन यस्तु । पिबति स्लीपदबन्धनमुनो भवति हि स मप्तरात्रेण ।। -- --
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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