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चतुर्थ खण्ड : ग्यारहवाँ अध्याय मोसम्मी, अगूर, सेव प्रभृति फलो के रस ( Fruit juice ) इस कार्य मे व्यवहत हो सकते है । ६ ऊर्ध्वग रक्तपित्त मे यवागू हितकर नही होती है ।। ___ तर्पण देने के अनन्तर रेचन के लिए अमलताश की गुद्दी, आँवला, निशोथ अथवा बडे हरे का काढा शक्कर और मधु मिलाकर प्रात: पिलाना ऊवंग रक्त'पित्त में रेचन करता है। इस प्रकार ऊध्वंग रक्तपित्त मे लघन, तर्पण और रेचन के द्वारा प्रारभिक चिकित्सा करनी चाहिए।
अधोग रक्तपित्त मे प्रारभ से ही पेया का प्रयोग करना चाहिए तदनन्तर वामक ववाथ पिलाकर वमन कराना चाहिए । पेया का निर्माण निम्न द्रव्यो के जल मे पका कर पुराने चावल या साठी के चावल का बनाना चाहिए । रोगी के अग्निबल के अनुनार पतला ( मण्ड), अर्ध द्रव (पेया) या अल्पद्रव ( विलेपी) बना कर देना चाहिए । दालो मे मूग या मसूर का योग करके कृशरा भी बनाई जा सकती है। कमल तथा नीलोत्पल को केशर, पृश्निपर्णी, फूल प्रियगु, चदन, उगीर, लोध्र, चिरायता, धातकी पुष्प, यवासा, विल्व, वला और शुण्ठी प्रभृति औपधियो से पापानीय विधि से जल बनाकर उसमे चावल, दाल आदि का पाक करके पेया बनानी चाहिए । इस पेया का प्रयोग ठडा करके उसमे घृत और मधु मिलाकर सेवन के लिए देना चाहिए। मामसात्म्य व्यक्तियो को कपोत के मासरस के साथ पेया सिद्ध करके दी जा सकती है।
पेया के अनन्तर रोगी को मोथा, इन्द्रजौ, मुलैठी और मैनफल सम भाग मे ले कर कपाय मिलाकर वमन कराना चाहिए अथवा चीनी का गाढा शर्वत प्रचुर मात्रा मे पिलाएर अथवा इक्षुरस पेट भर पिलाकर वमन कराना भी प्रशस्त है। इस प्रकार अधोग रक्तपित्त मे प्रारभ से ही अन्न ( पेया ) देकर वमन कराना ‘चाहिए ।
यह सशोधन की चिकित्सा बलवान रोगियो के लिए है। जिनमे रक्त, मास और बल क्षीण न हो, दोपो की प्रबलता हो और रोग सतर्पणजन्य हो और 'जिनमे कोई उपद्रव न हो। ऐसे रोगी मे दूषित रक्त तथा पित्त का निर्हरण करना आवश्यक हो जाता है और ऊर्ध्व भाग के दोपो का हरण विरेचन से तथा अधो भाग का दोपहरण-वमन के द्वारा कराना चाहिए।
१ वक्ष्यते बहुदोपाणा कार्य बलवता च यत् ।। अक्षीणबलमासस्य यस्य सतर्पणोत्थितम् ॥ बहुदोप बलक्तो रक्तपित्त शरीरिण । काले सशोवनार्हस्य तद्हरेन्निरुपद्रवम ॥ विरेचनेन भागमधोग वमनेन च ।