________________
चतुर्थ खण्ड : नवॉ अध्याय
२९७ अजीर्ण चिकित्सा में एक लोकोक्ति बहत प्रसिद्ध है "अजीर्णस्य किमीपवम् वमन, विरेचन, निद्रा वारि अथवा वमन विरेचन पन्था वारि ।" अर्थात् अजीर्ण की चिकित्सा मे वमन, विरेचन, सोना, रास्ता चलना और शीतल जल का पीना सदा पथ्य है। सोने की क्रिया को सर्वाधिक अजीर्णनाशक और सब प्रकार के अजीणों मे प्रगस्त माना गया है जैसे -'हीग, त्रिकटु और सैन्धव का उदर पर लेप कर के दिन मे सोने से मभी अजीर्ण शान्त होते है ।' आलिप्य जठरं प्राज्ञो हिडव्यपणसैन्धवः। दिवास्वप्नं प्रकुर्वीत सर्वाजीणविनाशनम् ।' अस्तु दिवास्वाप मव अजीर्ण रोग मे एकान्तत पथ्य माना गया है।
आमाजीर्ण में लघन कराना चाहिये। यदि दोपाधिक्य हो तो वमन करावे तथा पीने के लिए धनिया-सोठ से पकाया जल देवे । विदग्धाजीर्ण मे वमन करावे यदि दोप उत्कट न हो तो लड्वन मात्र से शान्त करे, पीने के लिये उढा जल देवे। विष्टन्धाजीर्ण मे उदर पर पर्याप्त स्वेदन करे तथा पोने को मेंधा नमक मिला हुआ गर्म जल देवे । रसशेषाजीर्ण में विना कुछ खिलाये ही जहाँ वायु विशेप न हो ऐसे स्थल पर दिन मे सुलावे। इसके बाद भूख लगने पर लघु भोजन दे । अन्य भी वायु-शामक उपचार करे । ____ आमाजीर्ण-प्रतिपेध-आमाजीण में वमन कराने के लिये वचा और लवण जल से वमन कराना चाहिये । अथवा पिप्पली, वच और सैन्धव का चूर्ण शीतल जल में मिलाकर पिलाना चाहिये । धान्यक और शुण्ठी से पकाया जल पीने को देना चाहिये। इस से शूल की शान्ति होती है और वस्ति का शोधन होता है। आचार्य सुश्रुत ने अजीर्ण रोग की सामान्य चिकित्सा बतलाते हुए लिखा है यदि सोकर उठने पर प्रात.काल मे अजीर्ण की शका हो तो दिन मे उपवास करा देना चाहिये, परन्तु यदि रोगी अधिक कामकाजी न्यक्ति हो और उसमे उपवास कठिन हो तो हरीतकी ३ मागे, गुण्ठी २ माशे, और सैन्धव १ माशा मिश्रित चूर्ण की एक मात्रा शीतल जल से सर्वप्रथम पिला देना चाहिये और अन्न-काल मे उसको लघु एव परिमित अन्न नि शक होकर भोजन कर लेना चाहिये ।। धान्यशुण्ठीजल तथा । विष्टब्धे वमनं यद्वा लङ्घन शिशिरोदकम् ॥ विष्टव्धे स्वेदन कार्य पेयञ्च लवणोदकम् । रसशेपे दिवास्वापो लवन वातवर्जनम् । । १ भवेद्यदा प्रातरजीर्णशका तदाभया नागरसैन्धवाभ्याम् । विचूर्णिता शोतजलेन भुक्त्वा भुञ्ज्यादशङ्क मितमन्नकाले ॥ ( भैष )
भवेदजीर्ण प्रति यस्य शका स्निग्धस्य जन्तोर्वलिनोऽन्नकाले । प्रातः स शुठीमभयामशको भुञ्जीत संप्राश्य हितं हितार्थी ॥ (सु)