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भिषकर्म-सिद्धि __अत्यग्नि चिकित्सा में व्यवहत योग-१ उदुम्बर की छाल २ तो० स्त्रीस्तन्य के साथ पीस कर पिलाना अथवा उदुम्बर को छाल का कल्क, चावल, स्त्रीस्तन्य में खीर बनाकर सेवन ।
त्रिवृतादिक्षीर-निगोब, बमन्ताम की गुही एक-एक तोला, दूध १६ तोला, जल ६४ तोला। अग्नि पर चढ़ाकर पनवे जब दृवमात्र ( १६ तोले ) नेप रहे तो उतार कर टंवा होने पर पिलावे ।
अपामार्ग-तण्डुलबीर-अपामार्ग का वीज, भैस के दूध मे पकाकर, शक्कर और घी मिलाकर खीर बनाकर मेवन । इस प्रयोग से गस्वार भूब लगना बन्द हो जाता है।
अजीर्ण-प्रतिपेव कियाक्रम-अजीर्ण ६ प्रकार का हो सकता है। १ मामाजीण कफा विश्य से होता है २ बियानीर्ण मे पित्त टोप की प्रबलता होती ३ विष्टब्धा जीर्ण में गत बोप की अधिकता होती है। और ४ सोपाजीर्ण एक विशेष प्रकार का अजीर्ण है जिसमें नाम रन का सवार होकर गरीर में गुन्ता, गोथ प्रभृति लक्षण उत्पन्न होते हैं। इन चारो विभेदो के अतिरिक्त ५. दिनपाकी और ६. प्राकृताजी नामक भी दो अजीर्ण-भेद बतलाये गये है जो प्राय. निर्दोष होते हैं और जिनमें पिसी विगेप निक्लिा की आवश्यकता नहीं पड़ती है। मामान्य पाचन योगो से ठीक हो जाते है।
वस्तुत सभी अजीर्णों में मामान्य उपचार नपतपण है। अल्प टोप होने पर (अपचन हल्का) होने पर केवल लंबन ग उपवास करा देना पर्याप्त होता है, मध्यम दोष होने पर लंबन के साथ पाचन के लिये योप-प्रयोग भी अपेक्षित रहता है, परन्तु दोप की प्रबलता होने पर (तीन बजीर्ण मे ) गोधन (वमन नयवा विरेचन या दोना) करना समुचित रहता है जिसमें दोप का पूर्णतया निमलन हो जाय । शास्त्र में इस क्रियाक्रम का विस्तार से उल्लेख इस प्रकार का पाया जाता है।
थामाजीण में वमन, विढयाजीण में लवन, विधाजीण में स्वेदन और रनोपाजीण में वृव सोना हितकर होता है। १ ।
१. शान्तिरामविक्रानणा भवति लपतर्पणात् । त्रिविधं त्रिविवे दोपे तत्समीक्ष्य प्रगेजयेत् ॥ तत्राल्ये लवन गस्त मध्ये लड्डन-पाचनम् । प्रभूते गोधन तद्धि मलादुन्मन्नयेन्मलान् ।। (वा )। तत्रामे वमन कार्य विदग्धे लवनं हित्म् । विष्व्ये स्वेदनं गतं रसगेपे गयीत च ॥ (भा प्र.) लडनं वमन वाम