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मिपकम-सिद्धि जाना, १ बातप (धूप ), १०. उष्णबात । * कुल मिलाकर तेईस प्रकार की स्वेदकी विधियाँ हैं ।
स्वेद का विधान-इन विभिन्न प्रकार के स्वेदन विधियों का प्रयोग देव, दोप, दूाय, वल, प्रकृति, सात्म्य, विकार यादि का विचार करते हुए करना त्राहिए। संक्षेप में कुछ तो मृदु स्वल्प के सेंक ( fomentation) के लिए और कुछ विधिगं मध्यम और महा स्वरूप के स्वेदन ( Inudction of sweating ) के लिए बताई गई है।
इनमें ऋतु गीत हो, व्याधि महाबलवान हो, रोगी भी बलवान हो तो महास्वेद का विधान मध्यम बल हो तो मध्यम स्वरूप का स्वेद और दुर्बल हो तो मदु स्वरूप का स्वेदन करे । आमतौर से वायु और कफ के विकारो में स्वेदन लाभप्रद होता है। ___ स्वेदन का प्रयोग कदापि शरीर का अभ्यंग या गरीर का स्नेह्न किए बिना नही कराना चाहिए क्योकि व्यवहार में देखा जाता है कि बिना तेल लगाए लकढी का वेदन करने से वह टूट जाती है। इसके विपरीत तेल लगा कर स्वेदन करने से मूबी हुई लकड़ी भी झुकाई या मोडी जा सकती है। इसीलिए स्वेदन के पूर्व स्नेहन का विधान ग्रंथों में बतलाया जाता है ।
जीवित गरीर का सुदैव स्नेहन के अनन्तर स्वेदन करना चाहिए-स्नेह के प्रयोग में मृथ्म रोमक्रोपो मे पढे दोष गिथिल हो जाते है, पुन. स्वेदन से पिघल कर बाहर निकल आते हैं, उन सूटम बोतमो के मुख 'बुल जाते हैं। गरीर के अन्दर पड़े विपा का वाग स्वेदन के जरिए हो जाता है। रोगी रोग से मुक्त हो जाता है।
स्वेदन के पूर्व स्नेह्न का एक दूसरा भी लक्ष्य है-तेल या घृतो की सहायता से उष्णता अपेक्षाकृत अधिक गहराई तक पहुँचाई जा सकती है। जिनसे गहराई में स्थित दीपो का गमन रक्ताभिसरण की वृद्धि के द्वारा शीव्रता से होता है।
स्वेद-साध्य रोगी ( Indication of sweating) 5579 (Asthma), sory Cough due to inflamation of the Respiratory and Extra respiratory passages ___ + व्यायाम उष्णसदनं गुरुप्रावरणं क्षुधा
वहुपान भयक्रोधावपनाहाहवातपा. दि स्वेदयन्ति दशैतानि नरमग्निगुणादृते । (चरक मू १४)