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द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय उद्देश्य या प्रयोजन-स्नेहो के उपर्युक्त मार्गों से उपयोग की क्रिया को स्नेहन कहा जाता है। इसका अन्तिम उद्देश्य ( ultimate aim) विशुद्ध रीति से अतृप्त धातुओ को तृप्त करना अर्थात् सतर्पण करना होता है। इसकी उपमा सूखते हुए वृक्ष की जड मे सिचाई करने की क्रिया से दी गई है। इससे तीन कार्य होते है-१ वायु का नाश, २ मृदुता का आना, ३ मलो की रुकावट दूर होना । स्नेहो के उपयोग से अतराग्नि दीप्त होती है, कोष्ठ शुद्ध होता है, धातु, वल एवं वर्ण की वृद्धि होती है। शरीर की इन्द्रियाँ दृढ होती है जरावस्था देर से आती है और मनुष्य सौ वर्ष तक जीवित रहता है।
स्नेह कल्पना ( preparations)-स्नेहो की बहुत सी कल्पनाये ( कुल चौसठ प्रकार की) है । परन्नु सभी समय उनके चक्कर में पड़ने की आवश्यकता नहीं रहती है । रोगी के अभ्यास, ऋतु, व्याधि एव उसके व्यक्तित्त्व के ऊपर विचार करते हुए यथा समय इनका उपयोग करना होता है ।
स्नेह प्रयोग के सामान्य नियस-पचकर्मो के पूर्व कर्म के रूप मे स्नेहन कराना हो तो इन नियमो का अनुसरण करे । सूर्य के पूर्ण रूप से प्रकाशित होने पर दिन मे घृत या तैल यथोचित मात्रा मे पिलाना। पीने के पश्चात् व्यक्ति को गर्म जल से कुल्ला करना और जूता पहन कर सुख-पूर्वक टहलना चाहिये। स्नेह के पीने के पश्चात घन पिये रोगी को गर्म जल, तेल पिये रोगी को यष तथा वसा और मज्जा पिये रोगी को मण्ड पिलाना चाहिये । यहि यह सम्भव न हो तो सभी प्रकार के स्नेह-पान के अनन्तर केवल उष्ण जल (गर्म पानी ) ही देना चाहिये । स्नेह पिये रोगी को प्यास लगने पर उस दिन उष्ण जल ही पीने को देना चाहिये।
विविध स्नेह के योग्य रोगी ( Indications)-घत-पित्त ओर वायु का शामक, रस-शुक्र-ओज और नेत्र के लिये लाभप्रद, दाह शामक, मृदुता उत्पन्न करने वाला, मुकुमारता एव सन्तान देने वाला और स्वर तथा वर्ण को चमकाने वाला, होता है अत इसका प्रयोग रुक्ष, क्षत, अग्नि-शस्त्र-विप पीडित रोगियो मे, वायु एव पित्त दोप के विकारो में तथा हीन मेधा और स्मृति शक्तिवाले व्यक्तियो मे प्रशस्त है।
तैल-वायुशामक, कफनाशक, बलवर्द्धक, त्वचा को चमकदार करनेवाला, उष्ण वीर्य, शरीर को दृढ करने वाला तथा योनि का विशोधन करने वाला होता है । अतएव इसका उपयोग कृमिकोष्ठ, क्रूरकोष्ठ, नाडी से पीडित, वाताविष्ट, वढे हए कफ और मेदस्वी रोगियो मे विशेपत. जिन्हे तैल अनुकूल पडता हो, करना चाहिये।