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चतुर्थ खण्ड : उन्नीसवाँ अध्याय
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कच्चे ठडे पानी की अपेक्षा उबाल कर ठंडा किया जल अधिक तपाशामक होता है। उबाल कर पानी को मिट्टी के घडे या सुराही मे ठडा होने के लिए रख देना चाहिए । ठडा हो जाने पर थोडा थोडा पिलाना चाहिए। रस योग
रसादि चूर्ण-शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, कपूर, छलछरीला, खस इन द्रव्यो को क्रम मे बढते हुए भाग मे लेकर । प्रथम पारद गंधक की कज्जली बनाकर शेप द्रव्यो का महीन चूर्ण मिलाकर बराबर मात्रा में शक्कर डालकर पानी से घोट कर ३ रत्ती की गोलियां बना ले । प्रात. काल मे १ गोली का सेवन वासी पानी के अनुपान से करने से तृष्णा रोग शान्त होता है ।
उपसंहार-यदि रोगाधिकार के योगो का प्रयोग करने से तृष्णा को रोग में भी शाति मिलती है।
उन्नीसवाँ अध्याय मूर्छा-भ्रम-अनिद्रा-तद्रा-संन्यास प्रतिषेध महिताहार-विहार, रक्तादि-धातुक्षय, अभिघात, विष तथा मद्यादि के सेवन से रजो गुण और तमो गुण की वृद्धि होने से रसवाही, रक्तवाही एव चेतनावाही स्रोतो में अवरोध होकर मद, मूर्छा और सन्यास की उत्पत्ति होती है । ये रोग वयोत्तर बलवान होते है अर्थात् मद से मूर्छा और मूर्छा से सन्यास आत्ायक होता है। इनमे रसवह स्रोत के अवरोध से मद, रक्तवह स्रोत के अवरोध से मूर्छा तथा चेतनावह स्रोत के अवरोध से सन्यास की उत्पत्ति मानी जाती है।'
मूी को बोलचाल की भाषा मे 'वेहोश होना' कहते है। इसमे मुख्य विकार हृद्विकार के कारण मस्तिष्क के रक्तसचार मे बाधा उत्पन्न होती है। हृदय के विकार दो तरह के होते है-१ हृद्गत-हृदय के पेशी की दुर्बलता और हृदय के द्वारो के विकार, जिसमें शरीर मे पर्याप्त रक्त रहते हुए भी हृदय मस्तिष्क तक पहुँचाने में असमर्थ होता है फलत मूर्छा पैदा होती है । २ परिसरीय १ रजोमोहाहिताहारपरस्य स्युस्त्रयो गदा ।
रसासृक्चेतनावाहिस्रोतोरोधसमुद्भवा । मदमूर्छायसन्यासा यथोत्तरवलोत्तरा ॥ ( अ ह नि. ६.)
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