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भिपकम-सिद्धि पैशाचसत्त्व अधिक वानेवाला, स्त्री के बगी, स्त्री के रहस्य जान को प्रवृत्ति वाला, अपवित्र, पवित्रता से द्वेप करनेवाला, स्वयं भोर होते हुए भी दूसरे को डराने वाला, विकृत माहार-विहार एवं गील वाला व्यक्तित्व पैगाचसत्त्व का होता है।
सार्पसत्त्व या नागसत्व-क्रुद्ध होने पर शूर परन्तु अक्रुद्धावस्था में भीन (डरपोक), तीरण, अधिक परिश्रम करनेवाला, ढरे डरे सामने मिलने पर आहार-विहार करनेवाला मार्पमत्त्व का व्यक्तित्व होता है।
अंतसत्व-आहार की कामना वाला, पति दुखदाई गील-आचार और उपचार से युक्त, परनिन्दक, बाँटकर न खानेवाला, अति लोलुप, दुराचार तथा अपकर्म ( निंद्य कर्म ) करनेवाला प्रैतमत्व का व्यक्तित्त्व होता है।
शाकुन सत्त्व-अनुपस्त काम ( अतिकामुक ), अनवरत माहार एवं विहार करनेवाला, अनवस्थित चित्त तथा अमर्पयुक्त, मंचय वाला व्यक्तित्व माकुन नत्त्व का होता है।
तामस सत्व के भेद-( इन मत्त्वो मे मोहाग या बनान की अधिकता होती है।)
पाशव सत्त्व-अकर्मण्य-निराकरण या प्रतिवाद न करनेवाला, वुद्धिहीन, निन्दित आहार एवं याचार का, मैथुनगील, अधिक निद्रा लेनेवाला पागवसत्त्व का अस्तित्व होता है।
मात्स्य सत्त्व-भीर, अनानी, आहार पर लुब्ध, पनवस्थित (मस्थिर चित्त), काम-क्रोध से रहित, अधिक चलनेवाला (गमनगील) तथा जल की यधिक चाह वाला व्यक्तित्व मात्स्य सत्त्व व्यक्तियो का होता है ।
बानम्पत्य सत्त्व-बालसी, केवल माहार में चित्त लगाया हुआ, सब प्रकार की बुद्धि मोर अग से हीन वानस्पत्य मत्त्व का व्यक्तित्व होता है ।
एकीयमत-कुछ विचारको ने आयुर्वेद के बग इस भूत-विद्या का सम्बन्ध अदृश्य अणु जीवो (PathoGenic Microbes & Viruses) से स्थापित किया है। जिनके उपमर्ग मे विविध प्रकार के औपगिक रोग उत्पन्न होते हैं । गतबीय चिकित्मा में जहाँ पर भूतीपमर्ग ( Sepsis due to microbes in Infection) के उपद्रव तथा उपचार का वर्णन है-भूतोपसर्ग इमी अर्थ का द्योतन करता है। परन्तु कायचिकित्मा में जहां पर ओन्मादिक रोगो में भागन्तुक उपमर्ग के रूप में भूनोपसर्ग विगृह रूप में प्रेतादि का यावेग ही ज्ञात होता है ।