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से ही प्रेरित
अन्तु, इनके उपचापान के ग्रहमाण मनन
चतुर्थ खण्ड : बाइसवाँ अध्याय ४३६ चरकने लिखा है कि
देवग्रह प्रायः शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा या त्रयोदशी को अवसर पाकर प्रवेश करते हैं। ऋपि ग्रह पष्ठी या नवमी ( शुक्ल पक्ष ) को, पितृ ग्रह दशमी को, गधर्व ग्रह द्वादगी या चतुर्दशी को, यक्ष ग्रह शुक्ल एकादशी या सप्तमी को, ब्रह्म राक्षस शुक्ल पचमी या पूर्णिमा को, पिशाच ग्रह द्वितीया, तृतीया या अष्टमो को प्राय आवेश या आक्रमण करते है। ___ अगन्तुक उन्माद मे व्यवह्रियमाण उपक्रम-रति(काम्य अर्थ की प्राप्ति) तथा अर्चना (पूजा लेने की इच्छा ) इन दो प्रयोजनो से ही प्रेरित होकर ये बाधक ग्रह देव तथा प्रेत योनि के ग्रह-गण मनुष्य शरीर पर आक्रमण करते है-अन्तु, इनके उपचार में भी चिकित्सक को उनके अभिप्रायो को समझ कर उन उन ग्रहो के अभिलपित उपहार, वलि आदि देते हुए उनकी पूजा एवं मत्र का प्रयोग करते हुए साथ ही उपयुक्त भेपज द्वारा चिकित्सा करते हुए उनका उपशम करना चाहिये।
रत्यर्चनाकामोन्मादिनौ तु भिपगभिप्रायाचाराभ्यां बुद्ध्वा तदङ्गोपहारवलिमिश्रेण मंत्रभैपज्यविधिनोपक्रमेत । (च. चि.)
आगन्तुक उन्माद में स्पष्टतया दो प्रकार के बाधक ग्रह होते हैं एक देव कोटि के जैसे देव, ऋपि, पितृ, गधर्व तथा दूसरे पिशाच कोटि के इनमे महासत्व तथा अल्पसत्त्व ग्रहो का विचार कर लेना चाहिये। यदि ग्रहोपसर्ग बहुत बलवान् स्वरूप का हो तो उसके अनुकूल एव मृदु उपचारो से शमन का प्रयत्न करना चाहिये, परन्तु यदि अल्पसत्त्व का ग्रह हो तो उसको दबाने या प्रतिकूल क्रिया करके शमन करना चाहिये।
सामान्य तया देव कोटि के उपसर्ग महासत्त्व के होते हैं । अस्तु, इनमे अनुकल तथा मदु उपचार करने का ही उपदेश पाया जाता है।
चरक सहिता मे लिखा है कि देवपि-पितृ-गधर्व से उन्मत्त व्यक्तियो में बुद्धिमान चिकित्सक अजनादि तीक्ष्ण और कर कर्म न करे। उसके लिये घुत पान आदि मदु उपचार करे। ___इनका आवेश दूर करने के लिये पूजा, वलि, उपहार, मंत्र, अंजन, शान्ति कर्म, इष्टि, होम, जप, स्वस्त्ययन वेदोक्त नियम और प्रायश्चित्त करे । भूत-प्रेतो के अधिपति जगत् के प्रभु भगवान् शकर की नित्य नियमपूर्वक पूजा करते हुए मनुष्य उन्माद के भय से दूर हो सकता है । - रुद्र के प्रमथ नाम के गण लोक मे विचरते रहते है। इनकी पूजा करते हुए मनुष्य उन्माद के भय से मुक्त हो जाता है। अस्तु, इनकी भी पूजा करनी