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चतुथ खण्ड : बयालीसवॉ अध्याय ६६५ इस प्रकार के गुणो से युक्त स्त्री पुरुष के हृदय मे प्रविष्ट हो जाती है इससे वियुक्त होकर आदमो संसार को स्त्री से हीन मानता है, इससे रहित होकर अपने को पुरुप इन्द्रियो से शून्य अनुभव करता है और उसके शरीर का धारण करना या जोवित रहता भी दुर्भर हो जाता है । पुरुष ऐसी स्त्री के समीप अत्यधिक हर्ष और वेग से जाता है । वार-बार जाने पर भी उससे उसकी तृप्ति नही होती है । ऐसी स्त्री पुरुप के लिए सदैव अपूर्व या नित्य नवीन बनी रहती है । ऐसो स्त्री वृष्यतमा होती है। गम्य स्त्री को निम्नलिखित विषताओ से युक्त होना चाहिए । जैसे अतुल्य गोत्र ( असमान गोत्र ) की, वृष्य स्त्री के गुणो से युक्त, नित्य प्रसन्न, नीरोग या उपद्रवो से रहित तथा रज स्रावकाल के अनन्तर स्नान करके शुद्ध हुई स्त्री पुरुप को भी नीरोग एव स्वस्थ, सन्तान से युक्त होकर स्त्री-सग धर्म के अनुसार करना चाहिये।
वाजीकर या वृष्य द्रव्य-जो भी द्रव्य मधुर, स्निग्ध, वृहणकारक, बलवर्धक और मन को प्रसन्न करने वाला है, वह वृष्य कहलाता है । इस प्रकार के द्रव्यो का सेवन करके, आत्मवेग से दर्पित होकर तथा लावण्य, हाव-भाव आदि स्त्रो गुणो से प्रहपित होकर पुरुष को स्त्रियो के पास जाना चाहिये । इस प्रकार शुक्रजनन, जोवनीय बृ हण, बलवर्धन तथा क्षीरजनन द्रव्य सभी वृष्य योगो मे प्रयुक्त होते हैं ।
यकिंचिन्मधुर स्निग्ध वृहण बलवर्धनम् । मनसो हर्पण यच्च तत्सवं वृष्यमुच्यते ॥ द्रव्यैरेवविधैस्तस्मादर्चितः प्रमदा ब्रजेत् ।
आत्मवेगेन चोदीर्णः स्त्रीगुणैश्च प्रहर्षितः ॥ (वा ३. ४०) नाना वृष्य ओषधियाँ-वृष्य औषधियो मे निम्नलिखित औषधियाँ प्रायः ग्रहण की जाती है । सरकण्डा, गन्ना, कुश, कास, विदारी, उशीर, कटेरी के मूल, जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, ऋद्धि, वद्धि, वला. अतिवला, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, शतावर, असगंध, केवाछ, पुनर्नवा, विदारी, क्षीर विदारी, जीवन्ती, रास्ना, गोखरू, मधुयष्टो, कठगूलर, पका आम, पिप्पली, द्राक्षा. खजूर, वशलोचन, दालचीनी, इलायची, नागकेशर, आमलको, तालमखाना, कसेरू, चिरौजी, रत्ती (घुमची ), सिंघाडा, मुनक्का, कमलगट्टा प्रभृति औषधियां व हण योग बहुलता से व्यवहृत होते है । मिश्री, घृत, मलाई, मक्खन, दूध प्रभृति निरामिष भोजन तथा मछलो, सूअर, मगर, कबूतर, तित्तिर, मर्गी, चटक (गौरया) प्रभति पश-पक्षियो के मास अथवा विविध प्रकार के पक्षियो के अएडे जैसे केकडा.