________________
भिपकर्म-सिद्धि
૬૬૯
चटक, हम, मोर, मुर्गा अथवा गोह, कच्छप एवं मगर के अण्डे तथा शूकर, शेर आदि के बनाओ का तथा भेंसे, साड तथा बकरे का वीर्य पाना प्रभृति आमिष प्रयोग वाजीकरण एव वृष्य होते है । घी और दूध का सेवन, नैरुज्य, अभ्यग, उबटन, स्नान, गव द्रव्यों का लगाना आदि कर्म भी वृष्य होते हैं । कुलीरर्कमनक्राणामण्डान्येवं तु भक्षयेत् ।
माहिपर्पभवस्ताना पिवेच्छुक्राणि वा नरः ॥ ( सु० चि० २६ ) आचार्य सुश्रुत ने लिखा है कि वृष्य आहार की दृष्टि से कई दूध प्रगसित है । जैसे गृष्टिक्षीर- प्रथम प्रसूता गाय या भैस, वृद्धवत्साक्षीर- वकेना का दूध अर्थात् टूथ देने वाले पशु जिनके बछडे लगभग एक वर्ष के हो गये हैं । मापपर्ण भृतजो-गाय को उडद की पत्ती खिलाकर ग्रहण किया दूब, इन दूधो की वृष्य योगो में प्रशसा पाई जाती है ।
वाजीकरण कार्य में क्षीर वर्ग, माम वर्ग तथा काकोल्यादिगण की ओषधियाँ श्रेष्ठ मानी गई है - यस्तु, इनका वृष्य योगो में बहुलता से उपयोग करना चाहिये ।
गृष्टीणा वृद्ववत्साना मापपर्णभृता गवाम् । चत्क्षीरं तत्प्रासन्ति बलकामेषु जन्तुषु ॥ क्षीरमासगणाः सर्वे काकोल्यादिश्च पूजितः ।
वाजीकरणहेतोर्हि तस्मात्तत्तु प्रयोजयेत् ॥ (मुचि २६ )
वृष्य वातावरण-मन को प्रिय लगने वाले स्थान तथा 'परिस्थितियाँ जैसे मनोरम गृह, सुन्दर शय्या, आसन, स्त्री, सवाहन, निर्झर, मनोरम दृश्य युक्त एकान्न स्थान, आभूषण, सुगंध, माला, इच्छित स्त्री, प्रिय हमजोली, कोकिल कूजन, कुसुमित वन, सगीत-गोष्ठी, नई जवानी ये परम हर्षोत्पादक परिस्थितिया होती है ।
एते प्रयोगविधिवद् वपुष्मान् वयोपपन्नो बलवर्णयुक्त. | हर्षान्विता वाजिवदष्टवर्षो भवेत्समर्थश्च वराङ्गनामु || वयच किंचिन्मनसः प्रियः स्याद् रम्या वनान्ता. पुलिनानि चैलाः । ष्टाः त्रियो भूषणगंधमाल्य मिया वयस्याश्च तत्रत्रयोज्या ||
सहयः परिपुष्टष्टा फुला वनान्ता विशदान्नपानाः । गन्यशब्दाथ सुगंवयोग्याः सत्त्वं. विशाल निरुपद्रवञ्च ॥ मिहार्थता चाभिनव च कामः स्त्री युव सर्वमिहात्मजस्य ! वयों नव जातमदश्च कालो हर्पस्य योनिः परमा नराणाम् || ( च० चि० २ )