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भिपकर्म-सिद्धि रस और स्वंदवह स्रोतो में अवरोध उत्पन्न होता है। अतण्य चिरिया में सर्वप्रथम 'म्यानं जयेद्धि पूर्वन्तु नगनन्यस्याविगेरत' इन वचन के अनुसार लंकन कराकर पाचन, एव नोतोवरोध दूर करने के उिये ज्वेदन माति का प्रयोग कराया जाता है।
सम्प्राप्तिभेद ( Variaties of pathogenesis ) नंख्याविकल्पप्राधान्यवलकालविणेपन । मा भिद्यते यथात्रंब वन्यतेऽटी ज्वग इनि । दोपाणां समवेनानां विकल्पोऽशांशकल्पना। स्वातन्त्र्यपारन्च्याभ्यां व्याः प्राधान्यमादिशेन। हेत्वादिकाल्यावयववेलाबलविशेषणम् । नक्तंदिनर्तुं मुक्ताशेाधिकालो यथामलम ।
(वा नि ?) सरवा, विकल्प, प्राधान्य, वर तण काल भेद ने नन्प्राप्ति के पांच वर्ग होते है। उनके क्रमग लक्षण तथा उपभेद नीचे दिये जा रहे है।
संख्या-सम्प्राप्ति-रोगो का भेद करके गणना करने के मापन को मस्या कहते है-जैसे 'बष्टी प्वरा पद अनिमारा पञ्च काना. पञ्चम्बामा पञ्च कि विगतिमहा. विगति कृमिजातय.' इत्यादि । इन नल्याओ का तान्त्रिक माहात्म्य है। और सत्याये भी निश्चित रहती है। वेन्ठानुमार इनके उपभेदो की ग्लना नही की जा सकती है। परन्तु आदि नल्या या शास्त्रीय गत्या एक ही रहती है। यह मीमित, निश्चित एव गान्त्र के द्वारा निर्धारित होती है। विकल्प सम्प्राप्ति-व्याधि में मिले हुए दोपो की मगागल्पना । 'समवेताना पुनःपाणामंशाशवलविकल्पोऽस्मिन्नर्थे ।'
(च नि १) यटि व्याधि एक्दोपज हो तब तो उस भेदरल्पना की भावग्यकता नहीं रहती, परन्तु व्याधि के ममृष्ट (द्विदोपज या विदोपज ) होने पर दोर के मशागल्पना की मावश्यक्ता उत्पन्न होती है।
प्राधान्य-प्रवान या अप्रधान या स्वतत्र या परतत्र भेद से सम्माप्ति भी दो प्रकार की होती है। गेग में रोगोत्पादक दोप की प्रधानता के उपर अथवा न्वतत्रता या परतत्रता के आधार नर-तम भेद मे प्राधान्य या अप्राधान्य सम्प्राप्ति का निर्णय करना होता है। इसी मागय का भाव निम्नलिखित उक्तियो से प्राप्त होता है।