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द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय
१११ इन चार वडे वर्गों के भीतर ही चरकोक्त तेरह प्रकार के सामान्य तथा विशिष्ट स्वेदनो के उल्लेख आ जाते है ।
(१) संकर या पिण्ड स्वेद :-(१) तिल, उडद, कुल्थी-अम्ल-घृत, तेल, मास, चावल का भात, कृगरा, या खीर का पिण्ड बनाकर सेकना।
(२) गाय, गदहा, सूअर या घोडे को लीद, जी की भूसो आदि का पिण्ड गोला जैसा बना कर उसे आग पर गर्म करके सेंकना पिण्ड स्वेद कहलाता है। रूप के अनसार ही स्वेद का नामकरण किया गया है। यदि बालू, धूल, पत्थर, रास आदि को कपडे मे बांध कर पोटली बना कर उसे गर्म करके स्वेदन किया जाय तो यह पोटली स्वेद या पुटक स्वेद कहलाता है।
इमे भो पिण्ड स्वेद के वर्ग मे ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार कपडे के भीतर लपेट कर पोटली जैसे बनाकर या वैसे ही लोष्ठ बनाकर जो स्वेदन को क्रिया की जाती है उसे मकर स्वेद कहते हैं । सकर स्वेद का पर्याय पिण्ड स्वेद है।
नाडी स्वेद-ग्राम्य (पालतू सूअर आदि), अनूपदेशज (उ.गली सूअर, गैण्डा आदि ) तथा औदक मान ( जल में पाए जाने वाली मछली आदि के मास ) दूध के सोवे, बकरे के मस्तिष्क, सूअर के मध्य भाग और रक्त, स्निग्ध तिल, तण्डल को किसी वर्तन मे रख कर आग पर चढाकर उससे एक नाडी (Tube) लगाकर उनके भाप मे स्वेदन क्रिया को नाडी स्वेद कहा जाता है। इससे देश, काल और युक्ति का विचार करते हुए प्रयोग करना चाहिए । इन द्रव्यो का नाडी स्वेदन विशेषत वायु के दोषो ( Nuralgia ) मे भी लाभ-प्रद होता है । ये सभी द्रव्य प्रोटीन तत्त्वयुक्त होते है ।
वरुण गुडूची, एरण्ड, सहिजन, मूली, सरसो, अडूसा, वाँस, करज, अर्क पत्र, अमातक, शोभाञ्जन, झिण्टी, मालती, तुलसी, सज प्रभृति वनस्पति उपयुक्त विधि से सीला कर उसके वाष्प से नाडी द्वारा स्वेदन करना भी सभव है। इनका प्रयोग कफपित्ताधिक्य मे जैसे Respiratory diseases, Mariasis आदि मे किया जाता है । इसी तरह मूली, पचमूल, सुरा, दधिमस्तु, मन अम्ल द्रव्य, और स्नेहो के द्वारा भी नाडी स्वेद का प्रयोग वातश्लेष्मिक विकारो मे किया जा सकता है ।
कोप स्वेद-ऊपर कही गई औपधियो का जल मे क्वाथ बनाकर या केवल खौला कर या दूध में पकाकर, तेल में पकाकर या घृत मे पकाकर एक बडे वर्तन मे उसमे तेल या घी को भर दिया जाय और उसमे रोगी को खूब तेल लगा कर नहाने या बैठने की व्यवस्था की जाय तो इस क्रिया को अवगाहन या