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भिपक्कम-सिद्धि ४ जात्यादिभिः शब्देर्या अभिधीयते सा सम्प्राप्तिः । ५. न चास्ति नियमो जातमात्रमेव विज्ञायते अजातस्य व्याधेनिदानपूर्वरूपाभ्यां वृष्ट्यादेरिव मेधादिना जायमानत्वात् । अथ जातमिति जन्मावच्छिन्नमुच्यते । वृष्ट्यादिकं तु भविष्यजन्मावच्छिन्नमेव । यस्य तु कालत्रयेऽपि जन्म नास्ति तन्न बायत एव तथापि न व्याधिजन्मसम्प्राप्तिः । जन्मवदालोकचक्षुरादेरपि वाच्यत्वापत्तेः, तैरपि विना नानाभावात् । ६ तस्मादोपेतिकर्तव्यतोपलक्षितं व्याधिजन्म सम्प्राप्तिः न तु
केवलं जन्मेति । ७ दुष्टेन दोपेण आमयस्य रोगन्य निवृत्तिरुत्पत्तिः सा सम्प्राप्तिः ।
( मधुकोप } ८ सं+प्राप्तिः सम्यक् प्राप्तिः ।
(उत्पत्तिक्रम) ९ रोगोत्पादक कुपित दोप की दुष्टि से लेकर रोगोत्पत्ति होने तक गरीर
में जितने परिवर्तन होते है वे सब सम्प्राप्ति है । १० शृङ्खलामढग गरीगन्तर्गत वैकारिक परिवर्तन, जिसमे संचय मे लेकर
भेद पयन्त रोगजन्म का वर्णन हो, उसे सम्प्राप्ति कहते है। अग्रेजी में इसे ( Pathogenesis ) कहते हैं। उदाहरण जैसे-ज्वर का चरकोक्त निदान।
सम्प्राप्ति का निदुष्ट लक्षण-रोग की सम्यक् प्राप्ति ही सम्प्राप्ति है । निदान सेवन के अनन्तर रोगोत्पत्ति होने तक शरीरान्तर्गत जितने परिवर्तन होते है वे सम्प्राप्ति नाम से शास्त्र मे अभिहित है। इसी निमित्त वाग्भट ने इसकी परिभापा या लक्षण इस प्रकार दिया है ।
'दोप जिस प्रकार के निदानो से दूपित होकर विसर्पण करता हुआ गरीरगत घातुओ को दूपित कर रोग को उत्पन्न करता है उसे सम्प्राप्ति कहते है। जाति, आगति इसके पर्याय है।' इस प्रकार सुश्रुतोक्त 'संचयं च प्रकोपं च प्रसरं स्थानराश्रयं व्यक्तिभेदच' मे सम्पूर्ण विकार-परम्परा का समावेश सम्प्राप्ति में हो जाती है। अर्थात् निदान सेवन के अनन्तर जिन शृंखला सदृश परिवर्तनो के फलस्वरूप रोग की उत्पत्ति होती है उम सम्पूर्ण परम्परा का वर्णन सम्प्राप्ति में पाया जाता है। इस विषय का ज्ञान रोगविनिश्चय तथा चिक्त्सिा में सहायक होता है।