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द्वितीय अध्याय
अनुपशय कहलाते है अथवा जिन औषधादि के उपयोग से रोग की वृद्धि हो उनको अनुपराय कहते है। अनुपशय दोप एव रोग दोनो का वर्धक होता है।
अनुपशय व्याधि का बोधक होता है या नही ? यदि वह व्याधि विशेप का बोध नहीं कराता तो निदानपंचक मे उसका नामग्रहण निरर्थक है और यदि वोधक हो तो निदान-पचक के पांच की सख्या से अतिरेक हो जाता है अर्थात् निदान के साधन पांच न होकर छ. हो जावेगा। इसका समाधान यह है कि यह रोगनिश्चय का छठां हेतु नही है बल्कि निदान का ही एक भेद है जैसा कि निदान में कहा गया है 'निदानोक्तानुपशय' अर्थात् निदान रूप से कहे गये माहाराचार तथा कालादि द्वारा ही अनुपशय या दु ख होता है।
निदानोक्तेन ये उक्ता आहाराचारादयस्तैरनुपशयो दुःखं निदानोक्तानुपशयः।
निदान से माम्य होने के कारण उपशय का अन्तर्भाव निदान मे हो हो जाता है। अत अनुपशय को पप्ठ रोगविज्ञानोपाय नही कह सकते । चरक मे भी लिया है 'गूटलिगव्याधिम्पगयानुपशयाच्या परीक्षेत' .गूढलिङ्ग वाले व्याधि की उपगयानुपशय से परीक्षा करे। निदान का भी यही कार्य है। अस्तु अनुपशय का निदान मे हो अन्तर्भाव समझना चाहिये ।।
वस्तुन अनुपगय का स्वतन्त्र अस्तित्व नही, उपशय कहने से ही तद् विपरीत अनुपगय शब्द का भी ग्रहण हो जाता है। ये दोनो साथ प्रयोग मे आने वाले शब्द है। जैसे, आमवात रोग के विनिश्चय मे यदि 'सैलिसिलेट' के उपयोग से शमन हुआ तो वह उपशय कहलायेगा, परन्तु यदि विपरीत क्रिया हुई तो वह अनुपशय कहा जावेगा।
सम्प्राप्ति-लक्षण
( Desirati on of Pathogeuesis ) निरुक्ति
१ यथा दुष्टेन दोपेण यथा चानुविसर्पता। निर्वृत्तिरामयस्यासौ सम्प्राप्तिर्जातिरागति.।
(वा नि १) २ सम्प्राप्तिर्जातिरागतिरित्यनर्थान्तरम् ।
(चर नि १) ३ जन्मापि जानकारणम् अजातस्य ज्ञानाभावात् । । नहि निदानादिबोधकत्वेन ज्ञानकारणत्वं कि बोधविषयत्वेन ।
(भट्टारहरिचन्द्र )