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भिपकर्म-सिद्धि प्रमेह में सामान्य क्रियाक्रम-प्रमेहपीडित रोगी दो प्रकार के मिलते हैएक स्थूल ( मोटे ) एव वलवान् दूसरे कृश एव दुर्बल । इनमे स्थूल एव बलवान रोगी मे बढे हुए दोपो को दूर करने के लिये वमन एव विरेचन प्रभृति कर्मों के द्वारा संगोधन करना उचित रहता है--कृश एवं दुर्वल रोगियो मे बल-मासादि को बढाने के लिये वृहण करना अपेक्षित रहता है।
स्थूल एवं बलवान् प्रमेह के रोगियो की वमन एवं विरेचन कर्म के द्वारा अर्ध्व और अधो मार्ग मे लीन हुए मल के दूर हो जाने के पश्चात् संतर्पण क्रम से ही चिकित्सा करनी चाहिये । जो रोगी अत्यन्त क्षीण या दुर्बल होने के कारण सशोधन के योग्य नहीं है उनकी सशमन क्रिया के द्वारा चिकित्सा, प्रारंभ से ही करनी चाहिये ।
सामान्यतया मत्र-संस्थान के रोगो मे अपतर्पण पथ्य होता है--परन्तु प्रमेह रोग में मशोवन के अनन्तर अग्निका वल देखते हुए संतर्पण को भी व्यवस्था करनी चाहिये । प्रमेह मे सामान्यतया कफ-पित्तनाशक उपचार पथ्य होता है । अस्तु, भपतर्पण की ही क्रिया अधिक प्रशस्त है।' ___प्रमेह रोग में सशमन के लिये निम्न लिखित थाहार-विहार की व्यवस्था करनी चाहिये । रोगी को बल के अनुसार शारीरिक श्रम कराना, भोजन मे लघु भोजन जैसे-जो, कोदो, साँवा, गेहूँ (रोटी, दलिया, भात या सत्तू बनाकर यथायोग्य) का प्रयोग करना चाहिये । पुराने चावल का सेवन भी कराया जा सकता है, परन्तु सब से उत्तम अन्न जी है। इसका बहुलता के साथ उपयोग ___ मधुमेहे मधुसमं जायते स किल द्विधा । क्रुद्ध धातुक्षयाद्वायुर्दोपावृतपथेऽथवा ।। आवृतो दोपलिङ्गानि सोऽनिमित्त प्रदर्शयन् । क्षणाक्षीण क्षणात्पूर्णो भजते कृच्छ्रसाध्यताम् । मधुर यच्च मेहेपु प्रायो मध्विह मेहति । सर्वेऽपि मधुमेहाख्या माधुर्यान्च तनोरत ॥ ( वा नि. १०)
१. रयूल प्रमेही वलनानिहेक कृगस्तथैक परिदुर्वलश्च । सबृहण तत्र कृशस्य कार्य संशोधनं दोपवलाधिकस्य ॥ अवं तथाऽधश्च मलेऽपनीते मेहेपु संतपंणमेव कार्यम् । सशोधनं नार्हति यः प्रमेही तस्य क्रिया संशमनी प्रयोज्या ।। यवस्यभक्ष्यान् विविधास्तथाद्यात् कफप्रमेही मसंप्रयुक्तान् । भृष्टान् यवान् भक्षयत प्रयोगान् शुकारच सवतन्न भवन्ति मेहाः ।। व्यायामयोगविविध प्रगाढरुहर्तनः स्नानजलावसेकं. ॥ विलक्षणायं कफपित्तजेपु सिद्धा प्रमेहेप्वपि ते प्रयोज्या । क्लेदश्च मेदश्च फफरच वृद्ध प्रमेहहेतु प्रसमीक्ष्य तस्मात् । वैद्य न पूर्वकफपित्तजेपु मेहेषु कार्याएयपतर्पणानि ॥