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चतुर्थ खण्ड : चौतीसवॉ अध्याय ५६५ कराना चाहिये। जौ के वने विविध प्रकार के भोजन जैसे-दलिया, रोटी, हलुवा, अपूपा (पूवा ), वाटी आदि बनाकर भी दिया जा सकता है--"यवप्रधानस्तु भवेत्प्रमेही।" दालो मे मूग, चना एव अरहर, कुलथी का और विशेष कर मूग का उपयोग करना चाहिये । शाक-तरकारी मे तिक्त और कपाय कटु रस युक्त पत्र, पुष्प, फल वाले शाको का जैसे-नीम की पत्ती, परवल, करेला, केला, गूलर आदि का सेवन कराना चाहिये । मूल और कदो का शाक रूप मे उपयोग कम करना चाहिये ।
मासरसो में प्रतुद (चोच से निकालकर मासादि खाने वाले गीध, बाज. काकादि ) एव विष्किर ( जमीन को कुरेदकर या नख से विखेर कर खानेवालेमुर्गे वत्तक, तितिर, लावा आदि ) पक्षियो के मास या अन्य जाङ्गल पशुओ के मास प्रमेह मे उत्तम रहते है । प्रमेह मे म8 का सेवन तथा मधु का उपयोग उत्तम रहता है--फलो मे आँवला, जामुन, आम, केला, अगूर मुनक्का, सेव, अमरूद, तथा अन्य ऋतु-फलो का सेवन पथ्य रहता है । फलो के माधुर्य से मधुमेह मे भी हानि नही होती है । जौ के सत्त का सेवन भी हितकर है। तैलो मे सर्षप, अतसी एव इगुदी तेल का उपयोग खाद्य रूप मे करना उत्तम रहता है ।
रुक्ष पदार्थ जैसे—निम्ब-हरिद्रादि द्रव्यो के चूर्ण के द्वारा या महीन मिट्टी के द्वारा शरीर के ऊपर गाढा उद्वर्त्तन करना, स्नान करना, व्यायाम करना, रात्रि मे जागरण, पथ्य है। दिन मे न सोना, अधिक बैठना या सोना, आराम-तलवी का जीवन तथा स्निग्ध, गुरु एवं अभिष्यदी आहार प्रमेह में अनुकूल नही पडते है.--- अस्तु, इन आहार-विहार एव औषधियो का बाह्य तथा आभ्यतर प्रयोग प्रमेह रोग मे हितकर होता है। निदान या कारण का परिहार सभी रोगो मे चिकित्सा सूत्र है-फलत. प्रमेह के उत्पादक सामान्य हेतुवो का-जिनका ऊपर मे कथन हो चुका है-पूर्णतया परित्याग करना आवश्यक होता है। जैसे दधि, आनूपदेशज मास, उडद, घी, रबडी, मलाई, कुष्माण्ड, इक्षुरस, गुड, स्वादु, अम्ल एव लवण का उपयोग सर्वथा बद कर देना चाहिये ।
गाय का दूध पानी मिलाकर सेवन करना उत्तम रहता है । धारोष्ण हो एवं वरावर पानी मिलाकर लिया जावे तो अधिक उत्तम रहता है।
१ यर्हेतुभिर्ये प्रभवन्ति मेहास्तेपु प्रमेहेपु न ते निपेन्या । हेतोरसेवा विहिता यथैव जातस्य रोगस्य भवेच्चिकित्सा ।। (च चि ६)
२ आमदुग्ध समजल य पिवेत् प्रातरुत्थित । नि सशय शुक्रमेह पुराण. स्तस्य नश्यति ॥ सर्वमेहहरो धाच्या रस क्षौद्र निशायुतः । लीढ. सारो गडच्यास्त मधुना तत्प्रमेहनुत् ॥ पीतो रसो गुडूच्या वाम धुना मेहनाशन । पलाशपुष्पतोलैक सितायाश्चार्धतोलकम् । पिष्ट पीताम्भसा पीत मेह हन्ति न सशय. ॥
(भै. र.)