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एक्कीसवॉ अध्याय
दाह-प्रतिषेध ... प्रावेशिक-बाह्य अग्नि या तेजस पदार्थ के सम्पर्क में आने से जो अनुभव होता है उसको दाह या जलन कहते है। शरीरान्तर्गत कारणो से रोगी को होने वाली जलन की विशेष अनुभूति को दाह रोग ( Burnring syndrome ) कहते है। दाह शरीरान्तर्गत अग्नि, स्वरूप का' ही अन्यतम गुण है। इस प्रकार किसी भी कारण से शरीरगत सोम गुण---कफ का ह्रास तथा अग्नि गुण-पित्त की वृद्धि होने से दाह का अनुभव होता है। सामान्यतया दाह पित्त की वृद्धि से ही उत्पन्न होता है । अस्तु, उसमे पित्तनाशक उपचारो से' शान्ति मिलती है । क्यो कि इस अवस्था मे पित्त और रक्त की ऊष्मा से दाह होता है। अस्तु, पित्त का ह्रासन यहां कर्त्तव्य रहता है।'
कई बार ऐसा भी होता है कि पित्त प्राकृत या स्वाभाविक रहता है, परन्तु कफ के अति मात्रा में सक्षय होने से वायु अधिक बढती है और वायु पित्त को शरीर के विभिन्न अवयवो मे त्वचा आदि मे खीच ले जाती है। उन अवयवो मे पित्त का सम्पर्क होने से दाह या जलन पैदा होती है। इस अवस्था मे पित्त को स्थानाकृष्टि-अपकर्षण से दाह पैदा होता है । चिकित्सा मे यहाँ पर पित्तशामक उपचारो द्वारा वायु को शान्त करके पित्त को स्वस्थान में लाने की आवश्यकता होती है। अस्तु, यहाँ पित्त का ह्रासन न करके वायुशामक उपचार लाभप्रद होता है।
सुश्रुत ने सात प्रकार के दाहो का उल्लेख किया है-१ मद्यज, २ पित्तज, ३ तृष्णानिरोधज, ४ रक्तपूर्ण कोष्ठज ५. क्षतज ६ धातुक्षयज तथा ७, मर्माभिघातज । इनमे मर्माभिघातज (Due to shock ) असाध्य होता है शेष साध्य होते है। इनमे मद्यज, पित्तज, क्षतज, रक्तपूर्ण कोष्टज और तृष्णा निरो१ त्वच प्राप्त स पानोष्मा पित्तरक्ताभिमूच्छित ।
दाह प्रकुरुते घोर पित्तवत्तत्र भेषजम् ॥ २ प्रकृतिस्थ यदा पित्तं मारुत श्लेष्मण क्षये । स्थानादादाय गात्रेषु यत्र यत्र विसर्पति ॥ तदा भेदश्च दाहश्च तत्र तत्रानवस्थित । गानदेशे भवत्यस्य श्रमो दीर्वल्यमेव च । ( च सू १०) . .
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