________________
४१८
भिपकर्म-सिद्धि और घृत का प्रचुर प्रयोग, अनुवासन तथा यापन वस्ति का प्रयोग तथा वातनाराक मन्यंग, उद्वर्तन, नान और अन्नपान की व्यवस्था करनी चाहिये।
उपसंहार-मदात्यय के रोगी चिकित्सा मे क्रम बाते है । चरक चिकित्मा स्थान में मनात्यय चिकित्सा नामक व्याय बड़ा ही विगढ ढंग से लिवा मिलता है उसमें मुरा को भगवती करके उम्बोधन किया गया है । इसके सेवन की परम्परा का इतिहास वैदिक युग में भारम करके बाज के दिन तक का वर्णित है। इसके योनि, संस्कार तथा नाम में विविध भेदो का उल्लेख किया गया है। इनमे विवियता होते हा भी मद ( नशा होना ) लक्षण की समानता पाई जाती है। विधिपूर्वक मन्त्र सेवन की विधि, मब के अमृत तुल्य विविध गुण, उम्ने निर्माण में व्यवहृन होनेवाले घटक, उसकी विविध चेष्टायें, उससे उत्पन्न होनंगली मद त्री विविध बस्यायें प्रभृति बातो का वृहद् माझ्यान पाया जाता है।
नदनन्तर अयुक्तियुक्त विधि या मात्रा में न प्रयुक्त होने पर उन में उत्पन्न होने वाले दोर, उम ने उन्यन्न मान्यर प्रभृति रोगों का विशाल वर्णन, उनको नमुचित चिकित्सा की अवस्या नभनि वातो का उल्लेव पाया जाता है ।
व्यवहार में मचनान राग आज कल कम मिलते है। संभवत प्राचीन युग में इस ( मद्यपान ) का प्रचार अधिक रहा हो फलतः तज्जन्य व्याधियाँ भी बहुत पैदा होती रही हो, उनमा उपचार-ज्ञान चिकित्सको के लिये आवश्यक रहा हो । विदेगो में मद्यपान की परम्परा अब भी पाई जाती है, परन्तु देश में उन परम्पग का लोप हो गया है जो कुछ शेष भी रहा उसका मद्य-निषेधक वियानो ने मूलोच्छन ही हो रहा है। फलत. इस बध्याय के लिखने में कुछ क्रियाक्रमों तथा कुछ गिनी चुनी बोपषियो का उल्लेख कर देना हो उचित समझा गण । विस्तृत जान के लिये चरक संहिता का महारा लेना अपेक्षित है।
अध्याय का उपमंहार करते हुए अंत में चरक ने अपना निष्पक्ष विचार मद्यसेवन नियपरक ही व्यक्त किया है। मद्य सब गुणों के बावजूद भी उसके अविधि या अति भवन में विविध दीप पैदा होते है । मस्त "जो मनुष्य ईन्द्रियो को वन में नहीं रखता है अर्थात् जितेन्द्रिय मोर सम्पूर्ण प्रकार की मादक (मयादि नगाला चीनो) द्रव्यों के सेवन से अपने को बचा लिया है टम को गारीरिक तथा माननिक विकार (जो प्राय, मदकर व्या में होते है ) नहीं होते हैं।" '.
१ निवृत्तः सर्वमन्यो नगे यत्र जितेन्द्रियः। गारीरमानमर्थीमान् विकारन स युज्यते ॥ (चर. त्रि. २४)