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चतुर्थखण्ड : तैतीसवाँ अध्याय
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Calculus ) १ वृक्कगत ( Renal ) २ गवीनोगत ( Ureteric ), ३ वस्तिगत ( Bladder), ४. अष्ठोलागत ( Prostatic ), ५ प्रसेकगत या मूत्र मार्गगत ( Urethral ), ६ शिश्नचर्मगत ( Prepusal ), ख - पित्ताश्मरी ( Biliary Calculus ), ७ पित्ताशयगत ( Gall Bladder ), एवं पित्तनलिकागत ( Bileduct ) ग -- अग्नयश्मरी ( Pancreatic Calculus ), घ - लालाश्मरी ( Salivary Calculus ), ड-नाभिगत ( Umbehcal ), च पुरीषाश्मरी ( Fecolith ), छ --शुक्राश्मरी (Prostatic or Spermolith ), ज -- रक्ताश्मरी ( Calcilied thrombus ),
प्राचीन ग्रंथो मे अश्मरी से केवल मूत्राश्मरी का हो वर्णन पाया जाता है | इसके तीन स्थानो का भी उल्लेख स्पष्टतया पाया जाता है । १. वस्तिगत ( Vesical ), २. गबीनीगत ( Urethral ), ३ शुक्राश्मरी ( Spermolith or Prostatic Calculus ), वस्तिगत अश्मरियो के तीन भेदो का भी उल्लेख वाताश्मरी ( Oxalic ), पित्ताश्मरी ( Uricacid), श्लेष्माश्मरी ( Phosphatic ) । अन्य अश्मरियो का उल्लेख नामत प्राचीन ग्रंथो मे नही हुआ है, तथापि लाक्षणिक दृष्टि से रोग का प्रसंग अवश्य पाया जाता है। जैसेगवीनो- प्रसक्त अश्मरी का वात व्याधि में तूनी एव प्रतितूनी नाम से तथा शूलाधिकार में पठित विविध शूलो में पित्ताश्मरियो का पाठ पाया जाता है । यहाँ पर केवल मूत्राश्मरी तक अपने विषय को सीमित रखना उद्देश्य है ।
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वात पित्त, तथा कफ भेद से तीन एवं शुक्राश्मरी ये चार प्रकार की मूत्रगत 'अश्मरियाँ होती है - इनकी उत्पत्ति मे कफ दोप की प्रधानता रहती है ।
समवर्त्त की विकृति से मूत्र मे ९ तरलता की कमी एव धनता की वृद्धि २. मिहिक अम्ल तथा फास्फेट ( Uric acid, oxalate, Phosphate) जैसे पदार्थों की प्रचुरता होने पर उनके कण धीरे धीरे सचित होकर अन्ततो गत्वा अश्मरी का रूप धारण करते है । अश्मरियां अधिकतर बाल्यावस्था मे - पाई जाती है । परन्तु युवावस्था मे भी वृक्काश्मरियाँ या शुक्राश्मरियां पैदा होती है । "
शर्करा - अश्मरी छोटे छोटे टुकडे या कण के रूप में बाहर निकलती है तो उसको शर्करा ( Passing of Gravels ) कहते है । इस तरह अश्मरी ओर १. वातपित्तकफैस्तिस्रश्चतुर्थी शुक्रजाऽपरा ।
प्रायः श्लेष्माश्रया सर्वा अरमर्थः स्युर्यमोपमा !