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चतुर्थ खण्ड : तीसवाँ अध्याय
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जाते हैं जिन का रोकना उचित नही है जैसे - मल ( पाखाने का ), मूत्र, अपान वायु, उद्गार ( डकार ), छर्दि (वमन), छोक, जृम्भा (जभाई), क्षुधा, तृपा, निद्रा, अश्रु ( आंसू ), ब्वास ( परिश्रम से उत्पन्न श्वास ) तथा शुक्र ( काम वासना से उत्पन्न ) के वेगो के रोकने से उदावर्त्त रोग होता है । इन वेगो की सख्या तेरह है और तेरहो के रोकने से तेरह प्रकार के उदावर्त्त भी हो सकते है, जैसे १ अपानोदावर्त्ती २ पुरोषजोदावर्त्त ( इनमे Pelvirectal staisis जैसे लक्षण पैदा होते हैं । ३ मूत्रोदावर्श ( Disteh ded Bladderdue to Urethral Spasm ), ४ जृम्भानिरोधज उदावर्त्त (ग्रीवास्तंभ Spasm of Sternocleidomstoid ) ५ अश्रुज उदावर्त्त ( Acute Dacrocystitis or Blepheritis सदृश लक्षण ), ६. छिक्कानिरोधज उदावर्त्त ( Rey Neck, Headache, Hemicrania सदृश लक्षण ), ७. उद्गारनिरोधज उदावर्त्त ( Hicolugh & chset pain ), ८ छर्दिनिरोधज उदावर्त्त ( Urticaria सदृश लक्षण ), ९ क्षुधानिरोधज या १०. तृपानिरोधज उदावर्त्त ( Emaciation & Ghddiness & Syn cope, Dehydration symptoms ), परिश्रमजन्य श्वास के वेगो के रोकने से ११ श्वास निग्रहजन्य उदावर्त्त ( हृद्रोग, मूर्च्छा प्रभृति 'लक्षण ), १२ निद्रानिरोधज उदावर्त्त ( जृम्भा, अगमर्द, शरीर का भारीपन ) तथा १३. शुक्रनिरोधज उदावर्त्त इनमे वृषणग्रथि, शुक्रप्रणाली -शुक्राशय तथा पौरुष ग्रंथि के विकार पैदा होते है | "
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वेग - विधारण से वायु का कोप होता है । इस प्रकार सभी उदावतों मे वायु की विगुणता होती है । अस्तु, पोडा का होना एक प्रमुख लक्षण के रूप मे पाया जाता है, चिकित्सा में वायु का अनुलोमन करना ही प्रधान उद्देश्य चिकित्सक का रहता है । उदावर्त्त मे लक्षण तीव्र अथवा चिरकालीन दोनो प्रकार के स्वरूप ले सकते है | २
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१ वातविण्मूत्रजृम्भाश्रुक्षवथूद्गारवमीन्द्रिया क्षुत्तृष्णोच्छ्वासनिद्राणा धृत्योदावर्त्त संभवः ॥ ( सु )
न वेगान् धारयेद्धीमानू जातान् मूत्रपुरुषयो । न रेतसो न वातस्य न च्छद्य. चवथोर्न च ॥ च. नोद्गारस्य न जृम्भाया न वेगान् क्षुत्पिपासयो । न बाष्पस्य न निद्राया निश्वासस्य श्रमस्य च ॥ २ सर्वेष्वेतेषु विधिवदुदावर्त्तेपु कृत्स्नश । वायो क्रिया विधातव्या स्वमार्गप्रतिपत्तये ॥