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भिपकम-सिद्धि उपर्युक्त ये सभी वेग शरीर को स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ है ( Nature calls ), शरीर को स्वस्थ रखने के लिये इन का रोकना हानिप्रद होता है। इन वेगो के अतिरिक्त कुछ मानसिक वेग भी होते हैं । जिनका धारण करना (रोकना) ही श्रेयस्कर होता है और स्वास्थ्य को ठीक रखता है । अस्तु, इन को रोकना चाहिये । उदाहरणार्थ--लोभ, शोक, भय, क्रोध, मान, निर्लज्जता, ईर्ष्या, अतिराग ( मोह ) तथा अभिध्या आदि । इनके न धारण करने से विविध प्रकार के आकस्मिक ( Accidental ) या सद्योघातज रोगो के होने की संभावना रहती है।
आनाह-उदावत से सम्बद्ध एक रोग आनाह पाया जाता है जिस रोग मे पूर्णतया मल एव अपान वायु की प्रवृत्ति न हो, उदर में गुड गुड शब्द भी नही हो उसे थानाह कहते है । इस अवस्था मे पूर्णतया अवरोध रहता है। मल का नि सरण वन्द हो जाता है, अपान वायु अथवा डकार का निकलना भी सर्वथा बन्द हो जाता है । आनाह आम तथा पुरीप दोनो के संचय से हो सकता है । आधुनिकदृष्ट्या इस अवरथा को बृहदंबधात ( Paralytic Ileas ) के कारण होने वाला आन्त्रावरोध ( Intestinal obstruction) कह सकते हैं।
मानाह से मिलती हुई एक अवस्था आध्मान का उल्लेख वातरोगाधिकार मे आता है। इसमे भी वायु का निरोव पाया जाता है, पेट का फूलना, पेट मे गुटगुडाहट, तीन उदर शूल, उदर का फूला हुआ ( तनाव या आध्मान Distension ) पाया जाता है--परन्तु इसमें मल का संचय होना आवश्यक नहीं होता है, साथ गे गुडगुडाहट (आटोप या आत्रकूजन) पाई जाती है और उदर मे पीडा की अधिकता रहती है।
सामान्य क्रियाक्रम--सभी प्रकार के उदावत रोग मे चिकित्सक को सम्पूर्णतया वायु को स्वमार्ग मे ले आने की क्रिया करनी चाहिये, जिससे स्वाभाविक वेग प्रवृत्त हो और अवरुद्ध मल या दोष निकल जावे । २ इसके लिये स्नेहन १ लोभशोकभयक्रोधमनोवेगान् विधारयेत् ।।
नर्लज्ज्येातिरागाणामभिध्यायाश्च वुद्धिमान् । (चर ) २. सर्वेष्वेतेपु भिपजा चोदावर्तेपु कृत्स्नशः । वायो क्रिया विधातव्या स्वमार्गप्रतिपत्तये ।। आस्थापन मारुतजे स्निग्धरिवन्ने विशेपतः । पुरीपजे तु कर्त्तव्यो विधिरानाहकोदित । यो. र यिवृत्सुधापनतिलादिशाकग्राम्यौदकानूपरसर्यवान्नम् । अन्यैश्च सृष्टानिलूमूत्रविड्भिरद्यात् प्रमन्नागुडसीधुपायी ॥ भै. र.