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( १६ ) दीर्घमायुः स्मृति मेधामारोग्यं नमण वय । प्रभावर्ण स्वरोदार्य देहन्द्रियवलं परम || वाक्सिद्धि प्रणति कान्ति लभते ना रनावनात! लाभोपायो हि शन्तानां रमादीना रनायनम् ।।
न केवलं दीमिहायुरश्नुते रसायन यो विधिवन्निपचने। गति स देवर्षिनिपेविता शुभा
प्रपद्यते ब्रह्म तथेति चाक्षरम् ।। (च.चि०१) रसायन के दो स्वरूप होते है-माध्मामिक या आचार-समन्धी नया आधिभौतिक या विभिन्न औषधियों के योग। इनमें प्रथम को fete physical और दूसरे को Meternalistic कह सकते हैं। इन दोनों में से कौन-सा कम उपयोगी और कौन-सा अधिक है, यह निर्णय देना कठिन है। फिर भी वैर का आचार-रसायन सर्वोपरि है । उसी का पर्याय सदाचार या मदन नाम से स्वतन्त्रतया दिया जा रहा है। यह भी आयुर्वेद का एक विशेष अंग है जो अर्वाचीन जन-स्वास्थ्य-विज्ञान के लिये एक सर्वथा नया अध्याय हो सस्ता ।
विशुद्ध आधिभौतिक दृष्टि से बहुत से रसायनों को उन गानों में पाया जाता है। ऋतु के अनुसार तथा सम्पूर्ण वर्ष के अनुसार, आयु अनुनार तथा विविध प्रकार के प्रयोजना के अनुसार अनेक प्रकार के रसायन बताये गए है। उदाहरण के लिए यहां पर एक हरीतकी रमायन का उल्लेख क्यिा जा रहा है। ___ हरीतकी मनुप्यों के लिए माता के समान हितकरी है-माता तो भी कुपित हो जाती है पर उदरस्थ हरीतकी कभी बु.पित नहीं होती। ऋतु के अनुसार इसका सेवन ग्रीप्म मे बराबर गुड, वर्षा में सेंधा नमक, शरद् में स्वच्छ शकर, हेमन्त मे सोंठ, शिशिर में पिप्पली एवं वसन्त ऋतु मे मधु के साथ सेवन की गई हरीतकी को प्राप्त कर रोग नष्ट होते है ।
हरीतकी मनुष्याणां मातेव हितकारिणी। कदाचित् कुप्यते माता नोदरस्था हरीतकी ।। (भा० प्र०) ऋतावृतौ य एतेन विधिना वर्तते नरः। घोरानृतुकृतान् रोगान्नाप्नोति स कदाचन ।। (सु० ३.६४ ) ग्रीष्मे तुल्यगुडा सुसैन्धवयुतां मेघावनद्धाम्बरे साधं शर्करया शरचमलया शुण्ठ्या तुपारागमे । पिप्पल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रेण सयोजितां राजन् प्राप्य हरीतकीमिव रुजो नश्यन्ति ते शत्रवः।।