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(१४ ) कारण रूप में अधर्म, और तजन्य वायु, जल, देश और काल का विकृत होना बतलाया गया है। विभिन्न प्रकृति सत्व आदि मनुष्यों के पृथक-पृथक होते हुये भी चार चीजे सबके लिये समान होती हैं। इसलिये इनकी विकृति से सम्पूर्ण देश का देश और जनसमुदाय विकारग्रन्त हो सकता है । अतः इनके प्रतिकार का उपदेश भी आचायों ने किया है। फिर भी आयुर्वेद की सर्वाधिक विगेपना उसके व्यक्तिगत स्वास्थ्य, संरक्षक उपायों ( Personal Hygiene ) में है। वह आज भी अभिनव सामाजिक स्वास्थ्य विज्ञान के लिये अनय ज्ञान के भांडार के रूप में है।
वैद्य को सर्वदा यत्नपूर्वक स्वस्थ पुरुप की रक्षा करनी चाहिये । इसीलिये आयुर्वेद में वर्णित स्वास्थ्य के आचरणों का उपदेश दिया गया है। चूंकि स्वास्थ्य सर्वदा इच्छिन है, इसलिये जिम उपाय से मनुष्य सदा स्वस्थ रहे वैद्य को वही उपाय करना चाहिये । ____ आयुर्वेदोक्त दिनचर्या, रात्रिचर्या और ऋतुचर्या का आचरण करता हुआ ही मनुष्य मर्वदा स्वस्थ रह सकता है। इसके विपरीत उपायों से नहीं ।
स्वस्थस्य रक्षणं कायें भिपजा यनत. लदा । आयुर्वेदोदित तस्मान्स्वस्थवृत्तं प्रचच्यते ।। मानवो येन विधिना स्वस्थस्तिष्टति सर्वदा । तमेव कारयेद्वैद्यो यत' स्वास्थ्य सदेप्सितम् ।। दिनचर्या निशाचर्यामृतुचर्या यथोदिताम् ।
आचरन् पुरुप. स्वस्थः सदा तिष्ठति नान्यथा ।। (भा. प्र.) केवल रोगरहित शरीर होने से एक व्यक्ति को स्वस्थ नहीं न्हा जा सकता । स्वस्थ पुरुप एक पारिभापिक अर्थ में व्यवहत होता है। उसका माप दण्ड ( Strandard ) आयुर्वेद के गलों मे ही देखे -
'जिसके वात, पित्त और कफ समान रूप से कार्य कर रहे हों; पाचनगक्ति ठीक हो , रस रक्तादि धातु और मलों की क्रिया ( Metabolism ) समान हो अर्थात् रस-रक्तादि स्वाभाविक रूप से बन रहे हों और मल निधि निकल जाता हो , साथ ही उसके आत्मा, इन्द्रियाँ तथा मन प्रसन्न हो , उसी को स्वस्थ कहते हैं :
समदोपः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः । प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ।। (सुश्रुत) .
रसायन
( Ceriatrics ) संसार की सभी वस्तुएँ नश्वर हैं । ये क्रमशः जीर्ण होते हुए नष्ट हो जाती हैं । यह एक प्रकार का स्वभाव है अर्थात् स्वभाव से ही नई चीजे पुरानी