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द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय
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सामान्य सज्ञा है जिसके भीतर सभी प्रकार की वतुओ का अन्तर्भाव ( oils, fate, lubricants ) हो जाता है ।
स्नेहमे कई महत्त्व के गुण है - १ भोजन सामग्री ( rich & concentrated food value ), २ जीवतिक्ति ए डी की प्राप्ति ( admin - istration of vlt A D ) ३ शरीर का बृहण ( strenSth, vigourtonic ) ४ औपसर्गिक व्याधियो से शारीरिक क्षमता बढाकर शरीर की रक्षा ( to & promote boflily resistance ) ५ प्राण रक्षा का आधार ( vitafity ) १ इन्ही गुणो के कारण पुरुप को स्नेह-सार कहा गया है ।
प्रकार-स्नेह उद्भवभेद से दो प्रकार के होते है । ( क ) जगम ( चर ), (ख) स्थावर ( अचर ) | जंगम ( animal source ) श्रेणी के स्नेहो मे घृत ( clarified butter ), वसा ( fat ), मज्जा ( अस्थियो के अन्तस्थ भेद-dhne marrow ) प्रभृति का समावेश है । इसी वर्ग मे आधुनिक अतिप्रचलित स्नेह जैसे ( Ccd, Halibut and Shark livei oils ) जो मत्स्यो के यकृत् की वसा से प्राप्त होते है इनका भी - अन्तर्भाव हो सकता है । आचार्य सुश्रुत ने भी लिखा है 'जगम प्राणियो जैसे मत्स्य - पशु-पक्षियो से उत्पन्न दधि, क्षीर, घृत, मास, वसा और मज्जा भी ' स्नेहो मे आती है । ये स्नेह आज कल बहुत प्रचलित है । उन्हे प्राचीन पारिभाषिक शब्दो मे अच्छ-स्नेह की सजा दी जा सकती है ।
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घृत (Ghee) - प्राचीनो के अनुसार जगम सृष्टि से उत्पन्न स्नेहो मे सर्वोपरि घृत माना जाता है, घृतो मे भी गोघृत । घृत को सर्वोत्तम स्नेह मानने मे कई उपपत्तियाँ दी जाती है
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१ यह गुण मे अन्य स्नेहो की अपेक्षा अधिक मधुर और अविदाही होता है । २ पित्त का शामक होता है ।
३ संस्कार का प्रभाव जैसा घृत के ऊपर पडता है ऊपर नही पडता । यह सस्कारानुवर्त्तन अर्थात् सस्कारो के गुण सबसे अधिक घृत मे पाया जाता है । अत घृत सर्वोत्तम स्नेह है । *
वैसा अन्य स्नेहो के अङ्गीकार करने का
१ 'स्नेहसारोऽय पुरुप, प्राणाश्च स्नेहभूयिष्ठा स्नेहसाध्याश्च भवन्ति ।' 'दीप्तान्तराग्नि परिशुद्धकोष्ट प्रत्यग्रधातु बलवर्णयुक्त । दृढेन्द्रियो मन्दजर शतायु स्नेहोपसेवी पुरुपो भवेत्तु ॥' ( सुचि ३१ )
* घृत का यह गुण उसमे अधिक मात्राओ मे असतृप्त ( unsaturated fatty acid ) के कारण होता है जिससे वह अधिक से अधिक मात्रा मे औषधि के तत्त्वो का शोषण करने में समर्थ रहता है ।