________________
भिपकर्म-सिद्धि
रोगी के दोप और बल मादि का विचार करते हुए इन भोजन की व्यवस्था करनी चाहिए। मास्थापन के मनन्तर पुन अनुवामन देने की विधि है। जिस दिन अनुवामन दिया गया है उनी दिन शाम को या गत में या बयाबल का नान करते हुए दूसरे दिन मनुवामन दें।
पूर्वोक्त प्रकार से जुद्ध गरीर वाले व्यक्ति को एक सप्ताह के अनन्तर गिरो. विरेचन कराना चाहिए। इसमे भी रोगी के सिर पर प्रचुर नल का अन्धग करा के हाथ के तलवे मेंक कर (नल स्बेद ) पश्चात् मल की तीन प्रकार की अवस्थामओ का विचार करते हुए तीन, दो या एक दिन तक निगेविरेचन देना चाहिए । पश्चात् पञ्च का प्रबन्ध वन्ति मे बनलाई विधि के अनुसार द्विगुण काल तक रखना चाहिए।
आचार्य मुगुन ने एक अपना स्वतन्त्र ही मत अवान्तर काल (gap) के सम्बन्ध में दिया है। उनके मतानुसार भली प्रकार में वमन देने के पन्द्रह दिन पीछे विरेचन देना चाहिए । विरेचन के सात दिनों के बाद निरहण देना चाहिए बीर निम्हण के तुरन्त पीछे अनुवासन देना चाहिए।
पक्षाद्विरेको बातम्य ततश्चापि निरहणम् । लद्यो निरूढोऽनुवास्य सप्तरात्राहिरेचितः।।
(मु चि ३६) पंचकर्म का निपेध-प्रचण्ड, माहमिक, कृतघ्न, भीर, व्यग्र, नवंद्यपी, राज पो, मवैद्यहिष्ट, राजटिष्ट, गोकपीडित, नास्तिक, ममूर्प (मरने की इच्छा वाला ), माधनहीन, व्यक्ति, शत्रुवैद्यविदग्ध, श्रद्धाहीन, शकावान् व्यक्ति, वैद्य के वश में न रहने वाले, इन व्यक्तियों में पचकर्म का अनुष्ठान नही करना चाहिए। गेप अन्य व्यक्तियों में उनकी अवस्था आदि का विचार करके पचकर्म करना चाहिए।
उष्ण जल-उप्ण जल-स्नेह और अजीर्ण का पाचन करता है, क्फ का भेदन करता है और वायु का अनुलोमन करता है। इसीलिए वमन, विरेचन, निल्ह और मनुवामन मे बात और कफ की गान्ति के लिए सदैव उण जल ही पिलाना चाहिए।
स्नेह ( oils & fats )-पुरुप के लिये स्नेह एक नितान्त उपयोगी द्रव्य है। इमीलिये पुन्प को स्नेह-सार कहा गया है। पुरुपो की प्राण-रक्षा का मुख्य माघार ( in order to maintain the vitality ) है । उनको बहुत मी व्याधियाँ केवल स्नेह के उपयोग मे साध्य है। स्नेह माधारणतया गुरु, शीत, मर, स्निग्ध, मन्द, सूक्ष्म, मृदु, एवं द्रव गुण वाले होते है । स्नेह एक