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द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय अस्नेहलवणं सर्वमकृतं कटुकैविना । विजेयं लवणस्नेहकटुकैः संस्कृत कृतम् ।।
(सूद शास्त्र चक्रपाणि की टीका मे ) पञ्चकर्मों का अवान्तर काल-पचकर्मों का कितने कितने दिनो के अन्तर से प्रयोग किया जाय यह एक ज्ञातन्य विपय है। शोधन की कोटि के अनुमार उममै विभिन्नता होती है। फिर भी एक उत्तम कोटि के शोवन का दृष्टान्त देते हुए उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है।
१ स्नेहन-तीन-~पाँच-सात दिनो तक करे। २ स्वेदन-दिनो मे उमको मख्या नहीं दी जा सकती। केवल लक्षणो के
आधार पर जब शीत और शूल शान्त हो जावे, स्तम्भ और गुरुता जाती रहे और मृदुता उत्पन्न हो जाय तो
स्वेदन से विश्राम करे। ३ वमन के लगभग आठ दिनो के अनन्तर नवे दिन-विरेचन के लगभग ८ दिनो के बाद अर्थात अनुवासन को नवे दिन दे । पश्चात अनुवासन के तीसरे दिन आस्थापन के अनन्तर पुन उसी दिन शाम को रात मे या दूसरे दिन पुनः अनुवासन । तदनन्तर विशुद्ध देह का शिरोविरेचन करे ।
४ वमन या विरेचन के अनन्तर सात दिनो तक ससर्जन क्रम का आहार चलता रहे, आँठवे दिन उसे प्रकृत आहार दे। फिर नवें दिन एक नए कर्म आस्थापन का प्रारम्भ करे। इस प्रकार वमन कराने के नवे दिन स्नेहन करने के पश्चात् विरेचन करावे । पुन विरेचर कर्म के द्वारा शोधित होने पर सात दिनो तक ससर्जन, आंठवे दिन प्रकृत आहार और नवे दिन अनुवासन कराना चाहिये।
'शोधनानन्तरं नवमेऽह्नि स्नेहपानम् अनुवासनं वा।' 'विरेचनात् सप्तराने गते जातबलाय वै। कृतान्नायानुवास्याय सम्यग् देयोऽनुवासनः।'
(सु चि ३७) विरेचन के अनन्तर कम से कम एक सप्ताह तक रोगी की आस्थापन नही कराना चाहिए । क्योकि इससे रोग वल की हानि होती है अत अनुवासन दे ।
अनुवासन के अनन्तर अब ससर्जनादि क्रमो की आवश्यकता नही रहती है। अत नातिबुभुक्षित ( जो अत्यधिक क्षुधित न हो) रोगी को तैल का अभ्यग करा के उसे तीसरे दिन आस्थापन देना चाहिए। पुन आस्थापन द्रव्य के निकल आने पर रोगी को जागल मासरस के साथ भोजन देना चाहिए।