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भिपकम-सिद्धि
संसर्जन क्रम वमन या विरेचन करने के अनन्नार गेगी 1 पग-पानी एक वटा धका लगता है जिससे उसकी अग्नि गन्न हो जाती है, गर्म पचाने की गति पूर्ववत् नती रह जाती है। सतावममा पचनार मना रोगी को उसके प्रकृत माहार ( Narmal diet ) पानी देना नारि। वरिक धीरे-धीरे पेया, विलेपी मादि हरके गुणान्य और मद्रव मागे द्वारा क्रमश रोगी के अग्नि को जागृत करते हए भोग पदाको सामान अधिक-अधिका द्रव के स्थान पर ठोस करते हए युट तो मे गेगी डिग प्राकृतिक आहार एप माना पर ले आना चाहिए। नमामिला जााचन
और अन्तराग्नि के परिपालन को ध्यान में रखते ऋमित नियुक्त अन्न के क्रम या पथ्यसेवन की विधि को नगर्जन क्रम करते हैं। दमन या विरेचन कर्म के अनन्तर इस क्रम का निश्चित रूप में अनुष्ठान करना चाहिए।
पेया-विलेपी-अकृत्यूप-कृतयूप-मकृतमानरम तथा पृतमार, 7 रह छ प्रकार के क्रमश दिए जाने वाले पयो का निर्देश है। उनमें अदित की शोधन की कोटि के ऊपर तीन, दो या एक अन्नकाल ( Diet ) तब एक एक पय्य की व्यवस्था करते हुए क्रमश पेया (मण्डयुक्त चावल का गीला भात) तत विलेपी ( मण्डरहित चावल का भात) पश्चात् अकृत-यूप (बिना घीनमक-कटुपदार्य के बनाए किसी तरकारी के यूप या दाल ) तदनन्तर कृत-यूप (घी-नमक और कटुपदार्थो से युक्त तरकारी के या दाल के यूए) अथवा मानरसो का यूप ( अकृत ) पुन कृत (घी नमक एव कटु रस द्रवयुक्त मागरम ) रूप का तीन, दो या एक काल तक देते हुए रोगी को प्रकृत आहार या पय्य पर ले भाना चाहिए। यदि गोधन उत्तम हुआ है तो तीन-तीन अन्नकाल तक, यदि मध्यम हुआ है तो दो-दो अन्न काल तक और यदि मामूली या हीन हुआ हो तो एक-एक अन्नकाल तक इन पथ्यो पर एकैकश रखते हुए रोगी को प्रकृत आहार | Normal diet ) पर ले आने का विधान है। इसी को ससर्जन क्रम कहा जाता है। इस प्रकार लगभग एक सप्ताह या बारह अन्नकाल के बाद रोगी अपने स्वाभाविक आहार पर आता है ।
पेया विलेपीमकृतं कृतञ्च यूप रमं विद्विरथंकशश्च । क्रमेण सेवेत विशुद्धकायः प्रधानमध्यावरशुद्धिशुद्धः।।
(च सि ) सिक्थकै रहिता मण्डः पेया सिक्थसमन्विता । यवागूर्वहुसिक्था स्याद् विलेपी विरलद्रवा ।। (परिभापा)