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द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय
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जाएगी। इस स्थान पर नामोल्लेख मात्र ही पर्याप्त है। स्नेहन और स्वेदन प्रत्येक पचकर्म के पूर्व मे आवश्यक होता है। जैसे - स्नेहन स्वेदन तत वमन प्रथम कर्म पुन , , विरेचन द्वितीय कर्म
अनुवासन तृतीय कर्म
आस्थापन चतुर्थ कर्म
, शिरोविरेचन पचम कर्म वमन-विरेचन--विधिपूर्वक स्निग्ये और स्विन्न रोगी के वमन या विरेचन के द्वारा शोधन करे । वमन और विरेचन कर्म के द्वारा की गई शुद्धि तीन प्रकार की हो सकती है । हीन शोधन, मध्यम शोधन तथा श्रेष्ठ या उत्तम गोधन। इन शोधनो का मापन चार प्रकार से किया जाता है--आन्तिकी (अन्त का विचार करते हुए), वेगिकी (कै और दस्त की संख्या के आधार पर), मानिकी ( परिमाण-तौल के अनुसार ) तथा लैडिकी ( लक्षणो के आधार पर)। जमा कि नीचे के कोष्ठक मे स्पष्ट किया जा रहा है। परिमाण के मापने मे यह ध्यान मे रखे कि वमन मे मिलाई गई औपधि की मात्रा को छोडकर तथा विरेचन में दो तीन वेगो की मात्रा को छोडकर शेष निकले द्रव्य का मापन करे। जघन्य (हीन)
प्रवर या उत्तम वमन वेगो की सख्य
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विरेचन
२ प्रस्थ परिणाम से
४ प्रस्थ
विरेचन पित्तान्तमिष्ट । कफान्तञ्च
वमन वमनम् विरेकमाहु अन्त के विचार पित्त मे निर्गम की कफ के निर्गम की
विरेचन मात्रा के ऊपर मात्रा के ऊपर लक्षणो के | अतियोग, हीनयोग के लक्षणो को आगे देखे । आधार पर ।
मध्य
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१ प्रस्थ
प्रस्य
वमन
२ प्रस्थ
३प्रस्थ
१ तान्युपस्थितदोषाणा स्नेहस्वेदोपपादनै । पञ्चकर्माणि कुर्वीत मात्रा
कालौ विचारयन् ॥' (च सू २)