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बत्तीसवाँ अध्याय
हृद्रोग प्रतिषेध प्रावेशिकअति व्यायाम, परिश्रम, दु साहस, अत्युष्ण-गुरु-कटु-तीक्ष्ण भोजन का सेवन, अध्यगन-चिन्ता-भय-त्रास आदि मानसिक कारण, वेगविधारण, लंघन-वमन-विरेचन तथा वस्ति आदि के प्रयोग से अतिकर्पण, आमवात, फिरङ्गादि रोगो के उपद्रव रूप मे तथा अभिधानादि कारणो से पाच प्रकार के हृद्रोग होते है-वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक, त्रिदोपज तथा कृमिज । इन सभी हृद्रोगो मे विकार पैदा होता है, जिसके परिणाम स्वरूप वैवर्ण्य (Pallor, Cyanosis, Malar Flush ) मूर्छा ( Syncope ), ज्वर ( Inflam matory diseases of the heart), कास-हिक्का-श्वास (Pressure in Mitral regurgitation or stenosis), वमन, अरुचि, श्वास-कृच्छ्रता, छदि, कफोत्क्लेश, आस्यवरस्य (Due to coronary insufficiency ), तृपाविक्य, चक्कर आना (Giddiness), हृद्रव ( Heart Palpitation ), हृच्छून्यभाव (हृदय के स्थान पर शून्यता का भाव का होना ) प्रभृति लक्षण सामान्य होते है।
वातिक हृद्रोगमे-सूचिकावेधनवत् पीडा, मन्थवत् पीडा, फाडने वा चीरने जैसी पीडा अथवा आरे कुल्हाड़ी से काटने जैसी पीडा, हृदय में खिंचावट तथा हृद्रव ( धडकन ) आदि लक्षण पैदा होते हैं । इस प्रकार की हृदय प्रदेश (वायें ओर के वक्ष ) मे पीडा आधुनिक निदान के अनुसार Angina. Pectoris (हृच्छूल) मे होती है। हृच्छल हृवाहिनी की घनास्रता ( Coronary thrombosis मे भी पाया जाता है, परन्तु इसमे कफाधिक्य के भी चिह्न पाये जाते है । अस्तु, श्लेष्मानुवन्धी हृद्रोग रोग या श्लेष्मज हृद्रोग मे इसका समावेश समझना चाहिये । पैत्तिक हृदोग में पित्ताधिक्य के तृष्णा, ऊष्मा, १ व्यायामतीक्ष्णातिविरेकवस्ति-चिन्ताभयत्रासगदातिचाराः ।
छ-मसधारणकर्गनानि हृद्रोगकर्तणि तथाऽभिघात ॥ वैवर्ण्यमू ज्वरकासहियका-श्वासाम्यवरस्यतृपाप्रमोहा । छदि कफोत्क्लेशरुजोऽरुचिश्च हृद्रोगजा स्युविविधास्तथाऽन्ये ॥ हृच्छून्यभावद्रवशोपभेदस्तम्भाः समोहा. पवनाद्विशेष. ॥ (च. चि २६)