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चतुर्थ खण्ड : उन्तालीसवॉ अध्याय
६३५ कुष्ठ में वाह्य प्रयोग---जैसा कि पूर्व मे उल्लेख हो चुका है-कुष्ठ रोग मे बहुत से त्वग्गत रोगो का समावेश हो जाता है---इन त्वचा के विकारो मे कई प्रकार के लेप एवं तैलो का उपयोग किया जाता है । कुष्ठ मे त्वचागत दोपो को लेपो के द्वारा दूर करने के पूर्व दूषित रक्त का निर्हरण तथा आशयो का संशोधन भी अपेक्षित रहता है । तो भी जल्दी सफलता मिलती है ।' लेप:
दद्र-रकसा-विचर्चिका-कच्छु आदि में व्यवहृत होने वाले लेप( Ringworm & Eczyma. ) मे
कठजामुन की छाल दही के साथ पोसकर लेप। - मनःशिलादिलप---मैनशिल, हरताल, काली मिर्च, इनमे प्रत्येक का १-१ तोला लेकर चूर्णित करके सरसो का तेल ४ तोला और अर्क क्षीर २ तोला मिलाकर खरल करके लेप बना ले। इस लेप से पुराने त्वक रोगो में भी उत्तम लाभ होता है।
करजादि लेप-करंज के बीज, चक्रमर्द के बीज तथा कूठ इनको पीसकर गोमूत्र मिलाकर लेप । __ आरग्वधादि लेप--रोगी के शरीर पर प्रथम सरसो के तेल का अभ्यंग करावे पश्चात् अमल्ताश, मकोय और कनेर के पत्तो को छाछ के साथ पोसकर उवटन लगावे । विविध प्रकार के त्वक् विकारो मे उत्तम लाभ करता है।
भल्लातकादि लेप--भिलावे का फल, चित्रक मूल, थूहर की जड, आक की जड. गुफा का मूल या फल, सोठ, मरिच, पिप्पली, शख भस्म, नीला थोथा, कूठ, पाचो लवण, सजिक्षार, यवक्षार तथा कलिहारी इन सव द्रव्यो को सम मात्रा मे लेकर महीन चूर्ण बना कर कड़ाही मे चढाकर चौगुने थूहर या अर्कक्षीर के साथ पाक कर लेना चाहिये। यह तीन क्षणन क्रिया करने वाला योग (Causticaction ) है । इसका उपयोग लोहे को शलाका से सीमित स्थान पर करना चाहिए । इसका प्रयोग कुष्ठ के मण्डल (मोटे चकत्ते), अर्श के मस्से या चर्मकील पर करना चाहिये। १ ये लेपा कुष्ठाना युज्यन्ते निर्गतास्रदोषाणाम् ।
संशोधिताशयाना सद्य सिद्धिर्भवेत्तेषाम् ।। २ मनःशिलाले मरिचानि तैलमार्क पय कुष्ठहर प्रदेह । ३ करजबीजंडगज. सकुष्ठ गोमूत्रपिष्टश्च वर. प्रदेह. । ४ पर्णानि पिष्ट्वा चतुरगुलस्य तक्रेण पान्यथ काकमाच्याः । तैलाक्तगात्रस्य नरस्य कुष्ठान्युद्वर्त्तयेदश्वहनच्छदैश्च ।। (च)
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