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भिपकम-सिद्धि
के ठीक या स्वस्थ न रहने पर कुपित हुए अनेक दोप अथवा रोग, रोगी का कोई वडा अनिष्ट नहीं कर सकते, परन्तु पाचकाग्नि के विपम होने से वहुविध दोपो का कोप होकर विविध रोग हो जाते है-जो रोगी के लिये प्राणघातक भी सिह हो सकते है। अस्तु कायचिकित्सा तन्त्र में समस्त रोगो की चिकित्सा मे पाचकाग्नि या जाठराग्नि की रक्षा करना मुख्य मन्त्र या सार है। एतदर्थ पाचकाग्नि को साम्यावस्या ( स्वाभाविक अवस्था) मे रखने के लिये पूर्ण प्रयत्न करना चाहिये।
अग्निभेदो का दोपानुसार विचार किया जाय तो कफ दोप की अधिकता से अग्नि मद, पित्त दोप की अधिकता से अग्नि तीक्ष्ण, वात दोप की अधिकता से अग्नि विषम तथा तीनो दोषो के समान रहने पर अग्नि सम या स्वाभाविक रहती है । अस्तु उपचार-काल मे इस बात का भी विचार अपेक्षित रहता है । इनमे समाग्नि अर्थात् स्वाभाविक अग्नि की उचित आहार-विहारादि से रक्षा करना, विपम होने पर वायु का निग्रह करना, तीक्ष्णाग्नि मे पित्त का शमन करना त्था मन्द अग्नि होने पर बढे और दूपित कफ का शोपण या शोधन करना चाहिये।
मन्दाग्नि या विपमाग्नि की चिकित्सा मे अग्नि को दोप्त करनेवाले योगो को देना चाहिये । मन्द अग्नि को कट-तिक्त और कपाय रसात्मक द्रव्यो का सेवन करके उद्दीप्त करना चाहिये और विपमाग्नि को स्नेहाम्ल-लवणादि द्रव्यो से वात का गमन करते हुए सम या स्वाभाविक अवस्था मे लाना चाहिये ।' ___मन्दाग्नि तथा विपमाग्नि से व्यवहृत होनेवाले एवं अग्नि को दाप्त करनेवाले योग-१ हरीतकी तथा शराठी चूर्ण प्रत्येक ३ मासे का पुराने गुड एक तोला के साथ मिलाकर सेवन अथवा सेन्धा नमक २ मागे के साथ मिलाकर सेवन करना उत्तम रहता है।
२ पिप्पली ( १ माशे ) का चर्ण पराने गण्ड (६ माशे) मिलाकर सेवन करना भी अग्नि को दीप्त करता है। अथवा पिप्पली को निम्वुस्वरस मे भिगोवे, उसके तर हो जाने पर उसमें चतुर्थाश काला नमक मिलाकर निम्बू के रस मे घोट कर गोली बना ले । पुन इ- गोली का सेवन करे ।
३ यवक्षार २ मागे, शण्ठी चर्ण ४ माशे गोघत मिलाकर प्रात काल मे सेवन अथवा गुएठी चूर्ण घृत के साय ।
१ सारमेतच्चिाकत्साया परमग्नेच पालनम । तस्माद्यत्नेन कर्त्तव्यं वह्वस्तु प्रतिपालनम् । अस्तु दोपशत ऋद्ध सन्तु व्याधिशतानि च । कायाग्निमेव मतिमान् रक्षन् रक्षति जीवितम् ॥ (भै र )
२ सममग्नि भिपग् रक्षेदन्नपान णा हित । मन्द स वर्धयेदग्नि कतिक्तकषायकै । स्नेहाम्ललवणाद्यैश्च विपमाग्निमुपाचरेत् ।। (च )