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चतुर्थ खण्ड : चौतीसवाँ अध्याय
४ मांजिष्ठ मेह ( Haemoglobinuria or urobilmuria)-- मजिठा एवं चंदन का कपाय (सु) लोध्र, नेत्रवाला, दारुहरिद्रा और घाय के फूल का कपाय |
५ रक्तमेह या शोणितमेह ( Haematuria ) -- गुडूची, तिन्दुकाम्पि, गाम्भारी और खजूर के फल का कपाय मधु मिलाकर लेना । सोठ, अर्जुन की छाल, शिरीष की छाल, छोटी इलायची और नील कमल का कपाय । रक्त चंदन, मधुयष्टि, मुनक्का से सिद्ध क्षीर का प्रयोग । वृक्काश्मरी, अर्बुद, अभिघात क्षय, वस्तिगत अश्मरी तथा रक्तपित्त आदि विविध कारणों से यह अवस्था उत्पन्न होती है । कारणानुरूप चिकित्सा करनी चाहिये । तथापि उपर्युक्त योगो से अथवा के शुद्ध स्फटिका १ माशा की मात्रा मे गूलर के कपाय से देने से लाभ उत्तम दिखलाई पडता है ।
६ कालमेह ( Melanu11a ) – यह भी रक्तमेह का एक प्रकार है । न्यग्रोधादि कपाय | पटोलपन, निम्ब की छाल, आंवला और गिलोय इनका वाय मधु मिलाकर ।
वातिक प्रमेह - वातिक प्रमेो मे अत्यधिक मात्रा मे धातुक्षय हो जाता है जिससे वायु कुपित होकर प्रमेह रोग को पैदा करता है । ये सभी प्रमेह असाध्य हो जाते है । अस्तु, इनकी चिकित्सा की विशेष चिन्ता की आवश्यकता नही रहती है । वातघ्न ओवियो से सिद्ध तैल या घृत का सेवन रोगी को कराना चाहिये ।१ भेदानुसार यहाँ एकैकश चिकित्सा का वर्णन किया जा रहा है । इन रोगों के असाध्य होते हुए भी यापनार्थ कुछ औपधि योगो का व्यवहार अपेक्षित रहता है ।
१ वसामेह ( Lipuria ) - मूत्र मे अत्यधिक मात्रा में वसा आती है । अग्निमथ ( अरणो ) का अथवा शिशपा ( शीसम ) का कपाय मधु से 1 (सु )
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२ मज्जा मेह- इसे सुश्रुत ने सर्पि मेंह की सज्ञा दी है । यह वसामेह का ही एक प्रकार है । इसमें वसा के साथ रक्त का भी मिश्रण पाया जाता है । ऐसी अवस्था वृक्क विद्रधि, पुराना पूयमेह तथा मूत्र-सस्थान के राजयक्ष्मा मे मिलती है । चिकित्सा मे कूठ, कुटज, पाठा, हिङ्गु, कटुरोहिणी (कुटकी), गुडूची और चित्रक का कपाय । ( सु ) । त्रिफला, मूर्वा की जड, सहिजन की छाल, नीम की छाल, मुनक्का और सेमल के जडको छाल, इनका कषाय बना कर
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१. या वातमेहान् प्रति पूर्वमुक्तावातोल्वणाना विहिता क्रिया या ।
वायुहि मेहेष्वतिकशिताना कुप्यत्यसाध्यान् प्रति नास्ति चिन्ता ॥ ( च चि ६)