________________
५६८
भिपकर्म-साद्ध । मे रखकर आचार्यों ने इस अवग्था का वर्णन किया है। उपचार मे व्यवहृत होने वाली औषधियाँ-पाठा एव गोक्षुर कषाय ( सु.) अथवा पाठा, मूर्वा और गोखरू का पाय मधु से पिलावे। (यो. र )
६ शनैर्सह-धीरे-धीरे मद वेग से मूत्र का स्राव होना। त्रिफला और गुडूची का कपाय । (सु) वच, खस, हरड, गिलोय इनका समभाग मे लेकर २ तोले द्रव्य का कपाय लाभप्रद होता है । ( यो. र.)
१० लालामेह-स्निग्ध एवं पिच्छिल वस्तु का मूत्र से सवित,होना । यकृत् दोप से शुक्रकीट ही शुक्र द्रव (Spermatic Fluid Prostatic or Seminal vesical Secretion ) का स्राव । त्रिफला और अमलताश का कपाय ( सुश्रुत ) । अडूसा, हरीतकी, चित्रक की छाल और सप्तपर्ण की छाल का कपाय लालामेह को दूर करता है। (यो र.) वकायन के बीज की भीगी २ मागा का चूर्ण मधु से।
सुश्रुत ने लवणमेह ( जिसमे क्लोराइड्स की मात्रा अधिक आवे इस प्रकार का मूत्र ) तथा फेनमेह ( मूत्र मे फेन या वायु की उपस्थिति होना- Pneumaturia) का वर्णन गीतमेह तथा लालामेह के स्थान पर किया है। फेनमेह मे त्रिफला, आरग्वध और द्राक्षा कपाय मधु के साथ पिलाने को बतलाया है । अगुरु तथा पाठा का क्वाथ लवणमेह मे उत्तम बताया है।
पित्तप्रमेह-पित्त प्रमेह छ. प्रकार के होते है। इनमे सामान्यतया विरेचन, सतर्पण तथा सशमन के द्वारा उपचार करना होता है। एकैकशः इनकी चिकित्सा का वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है ।
१. क्षारमेह ( Alkalineurine )-त्रिफला कपाय (सु.)। खस, लोध्र, अर्जुन की छाल और चदन का सम भाग में लेकर जो कुटकर २ तोले द्रव्य का कपाय मधु से ।
२. नीलमेह ( Indicanurna)--शालसारादि कपाय, अश्वत्थ कपाय (सु.)। सस, मोथा, आंवला एव हरड का कपाय ।
३ अम्लमेह ( Highly acidic urine ) का वर्णन केवल सुश्रुत मे आता है । इसमें क्षारीय द्रव्यो का उपयोग करना चाहिये। शेप हारिद्र, माजिष्ट, रक्त और काल मेह वास्तव मे रक्तपित्त या रक्तमेह के ही विविध प्रकार है--'रवतस्य पित्तस्य हि स प्रकोप. (चरक)।
३. हारिद्रमेह ( Haemoglobinurna)~आरग्वध कपाय ( सु.) मोथा, हरड, पुष्करमूल, श्वेत कुटज की छाल इनका क्वाथ ।