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'चतुर्थ खण्ड : चौतीसवाँ अध्याय
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२ इक्षुमेह ( Glycosuria Alimentry ) — निम्व के पत्र या छाल का काढा (सु) पाठा, वायविडङ्ग, अर्जुन की छाल और धमासा - समभाग लेकर जोकुट कर २ तोले द्रव्य का यथाविधि क्वाथ बनाकर मधु के साथ । ( यो. रत्नाकर मे कदम्ब के पाठ से उद्धृत ) जयन्ती क्याय भी उत्तम रहता है ।
३ सान्द्रमेह ( Phosphatoria ) - सप्तपर्ण का कषाय । (सु) हरिद्रा, दारु हरिद्रा, नागरमोथा और वायविडङ्ग समभाग मे लेकर २ तोले द्रव्य का यथाविधि बनाया कपाय मधु के साथ !
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४ पिष्ट मेह ( Chylura ) - हरिद्रा एवं दारु हरिद्रा का कषाय (सु) दारुहरिद्रा, वाय विडङ्ग, खदिर की छाल और धव की छाल का सम भाग मे गृहीत का कपाय मधु के साथ ।
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वरतुत पिष्टमेह और सान्द्रमेह दोनो मे लक्षण एव चिकित्सा का बहुत साम्य है- 1 अस्तु, एक में प्रयुक्त औषधि दूसरे मे भी व्यवहृत हो सकती है । इन दोनो अवस्थावो में मण्डूर भस्म ४ रत्ती की मधु से दिन मे दो बार देकर त्रिफला का म्याय पिलाने से अद्भुत लाभ होता है ।
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५ सुरामेह ( Acetonuria ) - सुरातुल्य गव का मूत्र । यह भी एक प्रकार का साद्रमेह ही है । मधुमेह ( Diabetes Mellitus ) का एक विशिष्ट लक्षण है । शाल्मली ( सेमलमूल) का कपाय उत्तम रहता है (सु ) कदम्ब की छाल अथवा फूल, शाल की छाल, अर्जुन को छाल और अजवायन समभाग मे लेकर २ तोला द्रव्य का यथाविधि बना। कपाय मधु के साथ |
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( योग र. )
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६ शुक्रमेह ( Spermatorrhea ) - दुर्वा, शैवाल, पूर्ति करञ्ज, कशेरुक, केवटी मोथा, सेवार, जलकुभी कपाय का ( सु ) देवदारु, मीठा कूठ, अगुरु लेकर यथाविधि निर्मित कपाय मधु ओपधियाँ मधु मे 1
और लाल चदन इन द्रव्यो को सम भाग में के साथ | ( यो र ) न्यग्रोधादि गण की
७ सिकतामेह ( Lithuria or Passing of Gravels ) — अश्मरी तथा शर्करा अधिकार की चिकित्सा करे । निम्ब का कषाय पान ( सु ) दारूहल्दी, अरणी की छाल, त्रिफला और बच का कषाय मधु के साथ (यो र ) चित्रक का क्वाथ भी उत्तम है ।
८ शीतमेह - स्वभावत मूत्र शरीर के रक्त ताप के समान उष्ण होता है, पर जिन अवस्थावो में ( Nitrogenous) पदार्थों की अमोनिया आदि को उत्पत्ति अधिक होती है, मूत्र शीतल होता है । सभवत इसी अवस्था को ध्यान