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सिपकर्म-सिद्धि मधु के साथ । मम प्रमाण में इन औषधियो को जीजुट कर २ तोले को ३२ तोले जल में उबाल कर ८ तोले गेप रहने और ठडा होने पर मधु मिला कर लेना । गीत्र लाभ पहुंचाता है।
हस्तिमेह-मतवाले हारी के समान वेगरहित मजन मूत्र का स्राव होता है । मूत्र लसीका युक्त और विवद्ध रहता है। संभवत. जीणं वृक्क नोथ का यह वर्णन है, जिस में शुक्लिी ( Albumin-), निर्मोक ( Casts) और पौरुष बहुमूत्रता ( Pollurna) आदि लक्षण मिलते है ।
कुछ विद्वानो के मत मे यह एक प्रकार का मिथ्या मूत्रकृच्छ (False in Continence of urine )-~जो सुपुम्ना स्थित मूत्र केन्द्र के घात अथवा थिको वृद्धि में पाया जाता है।
चिकित्सा मे तिन्दुक, कपित्थ, शिरीप, पलाश, पाठा, मूर्वा, धमासा का कपाय मधु मिधित कर के पिलाना अथवा-हाथी, अन्न, भूकर, खर (गर्दभ ) और बैट को हड्डी की भम्प का उपयोग करना उत्तम बतलाया है।
४ श्रौद्रमेह या मधुमेह या ओजोमेह-आधुनिक परिमापा के अनुसार इस रोग को 'डायबेटीज मेलाइटन ( Diabetes Mellitus) कहा जाता है। यह एक याप्य गेग है, इस मे मूत्र में शर्करा का उत्सर्जन होता है। रक्तगत गर्करा की भी मात्रा बट जाती है। इस रोग की चिकित्मा मे आहारबिहार का सम्यक् रीति से अनुपालन करना आवश्यक होता है। जब तक रोगी पथ्य में रहता है, ठीक रहता है अन्यथा रोग पुन हो जाता है। प्रमह रोगो में बतलाये गये सभी पच्चों का इस अवस्था में उपयोग करना चाहिये । ।
__ यह रोग प्राय समाज के उस वर्ग में पाया जाता है जो शारीरिक श्रम से त्रिमुग्ध होकर सम्पन्नता का जीवन व्यतीत करते है। दैनिक कार्यक्रम मे जिनको गारीरिक श्रम बहुत ही कम करना पड़ता है, अधिकाग बैठे रहना पडता है। साहार भी अत्यधिक पीष्टिक, स्निग्ध, कफ-मेदोवर्धक पदार्थों की बहुलता रहता है । अन्तु, चिकित्सा करते समय सर्वप्रथम इन कारणों को दूर करना आवश्यक होता है। एतदर्थ मधुमेह में पीडित व्यक्तियों के लिए व्यायाम या शारीरिक पन्धिम जो उनके शक्य हो अवश्य कराना चाहिये। सभी प्रकार के व्यायाम-टहलना, दोडना, खेल-कूद में भाग लेना, दण्ड-बैठक करना, दण्ड, मुद्गर-कुश्ती पादावात आदि यथायोग्य कराना चाहिये। आरामतलबी का जीवन छोडकर मनियों को तरह ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कराना आवश्यक होता है। प्रतिदिन विना जूते और छाते के धारण किये मार्ग में भ्रमण करते हुए, गृहस्थो के घर में