________________
३५८
भिपस-सिद्धि वोतलो मैं भरकर रख लेना चाहिये। मात्रा २३ तोले समान जल मिलाकर भोजन के उपरान्त । ___ इस अरिष्ट के सेवन से मल का गोधन होता है, रोगी का बल बढ़ता है, अग्नि जागृत होती है । क्षय, कास, उर क्षत मे लाभप्रद होता है।
यक्ष्मारि लौह-मधु १ तोला, स्वर्ण माक्षिक भस्म १ रत्ती, विडङ्ग चूर्ण १ माशा, शुद्ध गिलाजीत १ माशा, लौह भस्म १ रत्ती, हरीतकी चूर्ण १ मागा और गोवृत ३ तोला । इस योग का सेवन उग्न यदमा में भी लाभप्रद होता है। रोगी को दूध पर्याप्त मात्रा में देना चाहिये और पथ्यकर आहार-विहार से रहना चाहिये । इसी योग का दूसरा नाम ताप्यादि योग है।
शिलाजत्वादि लौह--शुद्ध शिलाजीत, मधुष्टि चूर्ण ( या सत्त्व), गुठी, मरिच, छोटी पीपल तथा सुवर्ण माक्षिक भस्म प्रत्येक एक-एक तोला । इन सबके वरावर अर्थात् ६ तोला लौह भस्म मिलाकर महीन पीसकर शीशी मे भर लेवे । मात्रा २-४ रत्ती। सहपान थी और मधु । अनुपान दूध ।
शृंगाराभ्र-अभ्रक भस्म ८ तोले, कर्पूर ४ मागे, जावित्री-नेत्रवाला-जपीपल-तेजपत्र-लवङ्ग-जटामासी-तालीशपत्र-दालचीनी-नागकेसर-कूठ-बाय के फूल प्रत्येक चार-चार माशे, हरड़-बहेरा-आँवला-शुण्ठी-मरिच-पिप्पली प्रत्येक दो-दो माशे, छोटी इलायची ८ माशे, जायफल चूर्ण ८ माशे, शुद्ध गधक ८ माशे मौर शुद्ध पारद ४ माशे । प्रथम पारद और गधक की कज्जली बनाकर उसमें शेप चूर्णो को मिलाकर-जल के साथ खरल करके चार-चार रत्ती की गोलियां बना लेनी चाहिये। मात्रा १ से २ गोली अदरक और पान के रस और मधु से । यह योग श्वास-कास तथा यक्ष्मा मे लाभप्रद है।
सुवर्ण भस्म के योग से बृहत् शृगाराभ्रनामक योग बनता है।
कुमुदेश्वर रस-स्वर्णभस्म-रससिन्दूर-गधक-मोती भस्म-रजत भस्म-स्वर्णमाक्षिक भस्म-शुद्ध पारद-शुद्ध टकण मिलाकर कांजी में पीसकर गोला बनावे । उसपर कपडमिट्टी करके लवण यत्र में पाक करे । चूर्ण करके २ रत्ती की मात्रा में घी और मरिच के चूर्ण के साथ चाटे ।
वृहत् काञ्चनाभ्र रस-स्वर्ण भस्म, रम सिन्दूर, मुक्ताभस्म, लौह भस्म, मन भस्म, विद्रुम (प्रवाल भस्म), वैक्रान्त भस्म, रजत भस्म, ताम्र भस्म, वंगभस्म, क्स्तु री, लवङ्ग, जावित्री, ऐलवालुक प्रत्येक एक-एक तोला लेकर भली प्रकार से महीन पीस ले। फिर वृत कुमारी के मज्जा, भृ गराज स्वरस और बकरी के दूध से पृथक्-पृथक् तीन भावना देकर २ रत्ती की गोलियां बनाले । यह एक