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चतुर्थ खण्ड पंचम अध्याय
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अजन -- यदि क्षोर, घृत, अभ्यगादि विविध प्रयोगो के करने पर भी ज्वर का मन नही हो रहा है तो उसमे आगन्तुक का अनुबंध ( भूतानुबध या प्रेतानुवध ) समझना चाहिये और एतदर्थ उम रोगी में अंजन का प्रयोग करना चाहिये । अजन के कई पाठ सन्निपात ज्वर के प्रसग मे आते हैजैसे अजन भैरव रस | इसका अजन लगाने से ज्वर की शान्ति होती है | "
१
वमन विरेचन का निषेध - ज्वर से क्षीण हुए जीर्ण ज्वर के रोगो मे पर्याप्त धातुओ का नाश हो गया रहता है । सर्व धातुक्षय से युक्त रोगी का मल ही वल होता है । अस्तु इस मल को निकालने के लिये कदापि वमन और विरेचन नही देना चाहिये । उसको पर्याप्त मात्रा में गाय का दूध, मुनक्का देना चाहिये, इसी से पेट साफ हो जाता है । यदि बहुत कब्ज हो तो निरूहण क्रिया से अर्थात् ग्लिसरीन की बत्ती ( Glycerine suppositery ), ग्लिसरोन को पिचकारी, (Grlycerine Syringe ) से एक या दो और ग्लिसरीन पाखाने के रास्ते से चढाकर, या सेलाइन या सोप वाटर एनोमा ( नमक या साबुन का पानी गुदा मार्ग से चढा कर ) या दशमूल कपाय की वस्ति देकर कोष्ठ की शुद्धि कर लेनी चाहिये । यदि मृदुरेचन देना हो तो गुलकद, मुनक्का, मुलेठो या अमलताश की गुद्दो मात्रा से खिला कर पेट को साफ करा देना चाहिये ।
निरूण की क्रिया से ज्वर कम होता है, रोगी के वल एव अग्नि की रक्षा होती है और अन्न मे रुचि जागृत होती है ।
जीर्ण ज्वर में योग - १ सामनो वटी (गुडूत्री घन वटी) - अगूठे जैसे मोटी गिलोय को लेकर, पानी से धोकर चार-चार अगुल के टुकडे काट ले। फिर एक कलईदार पोतल के कडाहे मे या लोहे के कडाहे मे चतुर्गुण जल मे खोलावे, चौथाई शेष रहने पर उतार कर छान ले। फिर इस द्रव को कलईदार कडा मे डाल कर अग्नि पर चढावे । जब द्रव गाढा हो कर हलवे जैसा हो जावे तो
( च )
सयवा•
१ धूपनाञ्जनयोगैश्च यान्ति जीर्णज्वरा शमम् । त्वमात्रशेपा येषाञ्च भवत्यागन्तुरन्वय पलङ्कपा निम्वपत्रं वचा कुठ हरीतकी । सर्पपा सर्विधूंपन ज्वरनाशनम् ॥ ( भै ) २ ज्वरक्षीणस्य न हित वमन न विरेचनम् । काम तु पयसा तस्य निरूहैर्वा हरेन्मलान् ॥ निरुहो बलमग्निञ्च विज्वरत्व मुद रुचिम् । परिपक्वेपु दोषेषु प्रयुक्त शीघ्रमावहेत् ॥ (च )