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भिपकर्म-सिद्धि ५ शुद्ध घृत अन्य स्नेहो को अपेत्रा हल्का होता है; परन्तु यह भारी। अतएव वृतपाकक्रिया के लिए घृत के अभाव में इन घृतो ( वनस्पति ) का ग्रहण सर्वथा हेय है।
वनस्पति घृत, तैल और घृत के मध्य का द्रव्य है। रासायनिक क्रियाओं के द्वारा इनके मेद ( fat ) तत्त्व को इस रूप में परिवत्तित कर देते हैं कि वह घृत का स्वरूप धारण कर सके । प्राकृतिक घृत मे मेद असतृप्त (unsatuoated ) दशा मे रहता है। शुद्ध घृत मे कुछ जीवतिक्ति (vft A) पाया जाता है जिनका कृत्रिम घृतो में अभाव रहता है, उसकी पूर्ति भी कृत्रिम घृतो मे उसका सयोजन करके जैसा कि दालदा के विज्ञापनो से ज्ञात है, पूरा कर दिया जाता है। तथापि वह औपविसिद्ध घृत के कामो मे व्यवहृत नही हो सकता है। ____ वनस्पति घृत या कृत्रिम घृत मू गफली के तैल से बनाये जाते हैं। इन तेलो की रासायनिक विधियो से 'हाइड्रोजेनेशन' क्रिया के द्वारा जमा दिया जाता है जिससे तैल की वसा पूर्णतया सतृप्त ( saturaticd ) हो जाती है। जिस स्नेह मे जितनी ही असतृप्त वसा (unsaturatedfat) होगी वह उतना ही औषधि को छोडकर पकाते समय औपधियो के स्नेह में घुलनशीलतत्त्वो के शोपण (absorption) मे समर्थ होगा । यही कारण है कि गुद्व वृत जिसमे तैलो की अपेक्षा अधिक मात्रा में असंतप्त वसा (unsaturated fat) तथा हीन कोटि के वसाम्ल ( lower fattyache ) होते हैं औपधियो के साथ पकाये जाने पर अधिक मात्रा मे औपविगुणो के गोपण में समर्थ होते है। इसी गुण को सस्कारानुवर्तन शब्द से प्राचीनो ने व्याख्या को है। अर्थात्
औपधि के संस्कार का सबसे अधिक प्रभाव घृत पर पडता है। इसके वाद दूसरा नम्बर तैलो का आता है। तैलो में असंतृप्त और संतृप्त दोनो प्रकार की वसाये रहती है। घृत की अपेक्षा इसमें सतृप्तवसा (saturated) अधिक रहती है अस्तु सस्कार-ग्रहण में इसका दूसरा नम्बर आता है। तैलो मे तिल के तेल की अपनी विशेपता जीवतिक्ति ए डी की अधिकता के कारण है। परन्तु वनस्पति घृत एक निष्क्रिय (neutral most ) पदार्थ है जिसके ऊपर औपषियो के सस्कार का प्रभाव नहीं पडता क्योकि वह गुणो के गोपण में असमर्थ है । भक्ष्य की दृष्टि से विचार करे या भोजन की दृष्टि से, वनस्पति धृतो का मूल्याङ्कन करें तो घृत और तैलो का भोजन-मूल्य ( foodvalue ) उनमें पाये जाने वाले unsaturated fatty acids के कारण होता है। क्योकि ये भाग टूट कर शरीर में उष्णता या शक्ति मे रूपान्तरित