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चतुर्थ खण्ड सप्तम अध्याय
२६१ युक्त रस शरीर में व्याप्त हो तो लवन ओर पाचन औपधियो के द्वारा आम दोप का पाचन करना अपेक्षित रहता है। जब आशय या कोष्ठगत आम दोष निकल जावे तो पचकोल ( पिप्पली, पिप्पली मूल, चव्य, चित्रक, नागर ) प्रभति दीपन एव पाचन औपवियो के क्वाथ, कल्क या प्रक्षेप से सिद्ध पेया, मण्ड, आदि लघु अन्न रोगी को सेवन करना चाहिये ।'
पक्वावस्था में क्रियाक्रम-वात ग्रहणो जब दीपन और पाचन औषधियो के प्रयोग से आम का पाचन हो जावे तो वातिक ग्रहणी मे दीपन और पाचन औपधियो से सिद्ध या युक्त गोघृत का प्रयोग करे। जव जाठराग्नि दीप्त हो जावे, तो दो-तीन दिनो तक स्नेहन (घी पिलाकर और तैल का अभ्यग करके) आस्थापन वस्ति, दशमूल कषाय ३२ तोले, सैधव ६ माशे मधु १ तोला और तिल तेल ८ तोले सबको एक मथनी से मथकर और वस्ति यत्र मे भर कर गुदा द्वारा देना चाहिये। इसके बाद वायु के शान्त हो जाने पर, मल के ढीला हो जाने पर एरण्ड तेल या क्षार युक्त तैल्वक घृत (चरक) से विरेचन कराना चाहिये। शोधन के बाद कोष्ट के रूक्ष होने से मल बद्ध होकर गांठदार हो जाता है अस्तु उसके निकालने के लिये दीपन एव अम्ल रस युक्त तथा वात नाशक द्रव्यो से सिद्ध तेल का मात्रा मे (१२ तोले की ह्रस्व मात्रा नारायण तैल की ) अनुवासन वस्ति ( Retention Enema) देना चाहिये । इस प्रकार निरूहण, विरेचन तथा अनुवासन के बाद रोगी को दीपन औपधियो से सस्कृत लघु भोजन तथा सिद्ध घृतो के प्रयोग से रोगी को स्वस्थ करना चाहिये ।।
वातिक ग्रहणी के रोगियो मे तीव्र विवन्ध और अतिसार पर्यायक्रम से चलते रहते है। रोगी दिनो-दिन रूक्ष और क्षीण होता चलता है । अतिसार की चिकित्सा
१ ग्रहणीमाश्रित दोष विदग्धाहारमूच्छितम् । सविष्टम्भप्रसेकात्तिविदाहारुचिगौरवे । आमलिङ्गान्वित ज्ञात्वा सुखोष्णेनाम्बुना हरेत् । फलाना वा ॥
२ ज्ञात्वा तु परिपक्वाम मारुतग्रहणीगदम् । दीपनीययुत सर्पि 'पाययताल्पशो भिषक् ।। किंचित् सधुक्षिते त्वग्नौ सक्तविण्मूत्रमारुतम् । द्वयह व्यह वा सस्नेहय स्विन्नाभ्यक्त निरूहयेत् ॥ तत एरण्डतैलेन सर्पिषा तैल्वकेन वा । सक्षारेणानले शान्तेस्रस्तदोप विरेचयेत् । शुद्ध रूक्षाशय बद्धवर्चस चानुवासयेत् ।। दोपनीयाजलवातघ्न सिद्धतैलेन मात्रया ॥ निरुढ च विरिक्त च सम्यक् चैवानुवासितम् लवन्न प्रतिसभुक्त सपिरभ्यासयेत् पुनः ।