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सिरकम-सा
सिक्षम-सिद्धि वस्ति का वर्णन कपर में हो चुका है। वस्ति देने के दो उद्देश्य होते हैकोष्ठ की शुद्धि तथा वस्ति के वीर्य तेल मादि का गोपण कराना । कोष्टशुद्धि पीष्टि से तो साधारण 'साबुन के पानी' या 'नमक के जल' की वस्ति देना पर्याह होता है, परन्तु जहाँ पर विशेष गुणाधान के विचार से प्रयोग करना हो वहाँ पर उपर्युक्त वस्ति का उपयोग करना चाहिये । इस अवस्था में (पक्षवध में) निगेप लाभ होता है।
स्वेदन गाल्वण गेग से विकृत शरीराध का उपनाह, लेप, प्रदेह आदि भी उत्तम रहता है।
अर्दित-यह कई वार स्वतंत्र और माम तौर से अर्धाङ्गघात के साथ-साथ पाया जाता है। अर्धाङ्गघात के साथ होने पर उपर्युक्त उपचार से दोनो अवस्थामो मे लाभ पहुंचता है। तथापि अदित रोग मे शास्त्र में कुछ विशिष्ट क्रियाक्रमो का उल्लेख पाया जाता है । इन क्रियायो को स्वतंत्र रूप में पाये जाने वाले मदित रोग में वरतना चाहिये । मर्दित में नस्य कर्म (नावन), सिर पर तलो का सम्यग या शिरोवस्ति, तर्पण (वहण आहार), नाड़ी स्वेद, मानूप मांसी से उपनाह, स्निग्ध स्वेद आदि उपचार करना चाहिये। आगे उतलाये जाने वाले धनुर्वात या अपतानक में भी इन क्रियाक्रमो को करना हितकर होता है।'
भपज-१ रसोन कारक पत्थर पर पिसे हुए ६ मागे लहसुन के कल्क १ तोला सक्खन के साथ मिलाकर खाने से अदित रोग नष्ट होता है ।
२. अदित रोग में मक्खन के साथ उड़द का बडे खाकर तदनन्तर दुग्ध या भानरस के साथ भोजन करना उत्तम रहता है। अपराल में दशमूल का क्वाथ भी लाभप्रद रहता है।
३ इसके अतिरिक्त वात रोग के अन्य उपक्रमो को यथापूर्व रखना चाहिये । स्वेद, अभ्यंग, शिरोवस्ति, स्नेहपान, नस्य (वातघ्न तेल या घृतो से) तथा भोजन के पश्चात् घृत का पीना लाभप्रद रहता है। १. स्वेदाभ्यग-गिरोवस्तिपाननस्यपरायणः ।
दितं च जयेत् सपि. पिवेदोत्तरभक्तिकम् ।। अदिते नवनीतेन खादेद् मापेण्डरी नरः ।
वीरमासरसभुक्त्वा दशमूलीरसं पिवेत् ।। (भै र ) २. उपाचरदभिनव खन पगुमथापि वा । विरेकाम्थापनस्वेदगुग्गुलुस्नेह-बस्तिभि. ॥ क्रम पलायावजस्य खजपझ्वोरिव स्मृतः । विगेपास्नेहनं कार्य कर्म ह्या विचक्षणः ।। (भा.प्र.)