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चतुथ खण्ड : प्रथम अध्याय मासरस-अधिक परिश्रम, उपवास तथा वात इन कारणो से उत्पन्न हुए ज्वर में रोगी के क्षीण होने पर तथा अग्नि के दीप्त रहने पर उसे मासरस और चावल पा भात ( तएड्रलौदन ) खाने को देना चाहिये । आमिपभोजी रोगियो मे लावक ( जगली वटेर), कपिञ्जल ( जंगली तीतर ), हिरण, पृपत (हिरन को कोई जाति ), शरभ, शग ( खरगोश ), कालपुच्छ, कुरंग, मगमातक प्रभृति हल्के मासो का उपयोग करना चाहिये। ज्वरकाल मे कई वार प्रोटीनयुक्त आहार आवश्यक होते है। आज कल कई प्रकार के मासरस ज्वरकाल में व्यवहृत होते है । जमे:-'हाईन्यूट्रान' (हिन्द)।
मासरन को रोगी की रुचि के अनुसार, अनारदाना या आँवला डालकर घोटा खड़ा बनाकर या विना खट्टा किये भी दिया जा सकता है। इसके अभाव में चरने वाले बकरे के लघु अवयव के मास का रस भी दिया जा सकता है। वकरा भी जाङ्गलवत् माना गया है और मानव शरीर के लिये सात्म्य है। ।
दालके यूप-मग, मसूर, चना, कुलत्थ, मकुष्ठ इनमे से किसी एक दाल को अठारह गने जल में सिद्ध करके आहार-काल मे पोपण के लिये रोगी को दे । यह दाल का यूष कहलाता है।
शाक-यूप-परवल के पत्ते एव फल, वैगन, करेला, कर्कोट ( ककोडे, खेखसा), पित्तपापडा की पत्ती, गोजिह्वा (गाजवां ), छोटी मूली, गुडूची को पत्ती, चौलाई, वथुवा, तिनपतिया (सुनिषण्ण ), चौपतिया ( चाङ्गरी), नीम का फूल, मारिप ( मरसा), प्रभृति तिक्त रसवाले शाक बिना घी-तेल आदि का छौंक दिये ही यूप के रूप मे बनाकर देना चाहिये ।
वाट्यमण्ड ( वार्ली वाटर)-जौ को कूटकर भूसी निकाल कर गूढी बनाकर फिर थोडा भूनकर चौदह गुने जल मे उबाले और छान लेवे तो उसे, बाट्यमण्ड कहते है । यह कफ एवं पित्त का शामक होता है। ज्वर के रोगी मे अतिसार भी चल रहा हो तो उस अवस्था मे बडा उत्तम पथ्य रहता है। इसमे थोडा नमक और कागजी नीबू का रस मिलाकर स्वादिष्ट भी किया जा सकता है ।२ आज कल बार्ली पर्याप्त मात्रा में वाजार में मिल जाती है। इसमें खडे दाने वाले वार्ली का प्रयोग करना चाहिये चूर्ण का नही ।
१ उपवासश्रमकृते क्षीणे वाताधिके ज्वरे । दीप्ताग्नि भोजयेत्प्राज्ञो नर मासरसौदनम || लावान् कपिञ्जलानेणान् पृषताञ्छरभाञ्छशान् । कालपुच्छान् कुरगाश्च तथैव मृगमातृकान् । मासार्थं माससात्म्याना ज्वरिताना प्रदापयेत् । (सु उ ३९) ईपदम्लाननम्लान् वा रसान् काले विचक्षण । प्रदद्यान्माससात्म्याय ज्वरिताय ज्वरापहान॥
२ सुकण्डितैस्तथा भृष्टाट्यमण्डो यवैर्भवेत् ।