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चतुर्थ खण्ड : अठारहवाँ अध्याय
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ओर गर्म मसालेदार भोजन से ) । १ चरक तथा वाग्भट ने एक उपसर्गज ( रोगो के उपद्रवस्वरूप ) भेद का वर्णन किया है ।
सभी प्रकार के तृष्णा रोग अत्यधिक प्रमाण मे होने से असाध्य होती हैं | रोग से कृश तथा वमनयुक्त तथा उपद्रवयुक्त रोगियो में तृष्णारोग असाध्य होता है । शेष साध्य होता है ।
सामान्य क्रियाक्रम - जलीय धातुवो के क्षय से तृष्णा उत्पन्न होती है और जलधातु के सूख जाने से अर्थात् जलाल्पता से प्राण का भय उपस्थित रहता है । अस्तु, पर्याप्त मात्रा में वर्षाजल ( ऐन्द्रतोय ) मधु मिलाकर तृष्णा से पीडित रोगी को देना चाहिए । यदि यह सुलभ न हो तो तद्गुणो से युक्त जल जैसे - सोफका अर्क, जेवायन का अर्क, पुदीने का अर्क, चदनादि अर्क, वरफ का जल, कर्पूराम्बु या बरफ चूसने के लिए या मिश्री या द्राक्षाशर्करा का जल (Glucose water) रोगी को थोडा थोडा कर के पिलाते रहना चाहिये । कोई भी जल जो हल्का, पतला, शीतल, सुगंधित, सरस, किंचित् कषाय अनुरस वाला तथा अनभिष्यदि हो, ऐन्द्र तोय के सदृश ही होते हैं उनका प्रयोग तृष्णा में किया जा सकता है 13
गर्म करके शीतल किया जल मिश्री मिलाकर अथवा मिट्टी का ढेला गर्म करके अथवा सुवर्ण, चादी आदि को तप्त करके पानी मे बुझाया जल मिश्री मिलाकर या अश्वत्थ ( पीपल ) की सूखी छाल जलाकर उसके अगारे से बुझाया जल अथवा कशेरू, सिंघाडा, कमलगट्टा, शर- ईक्षु दर्भ- काश-शालि मूल से खोलाकर ठंडा किया जल पीने के लिए तृष्णा रोग में वार-बार थोडा-थोडा करके देते रहना चाहिये । गर्म करके ठंडा किया या वरफ छोडकर शीतल किया जल या केवल विना गर्म किये
१. तिस्रः स्मृतास्ता. क्षतजा चतुर्थी क्षतात्तथा हयामसमुद्भवा च । भक्तोद्भवा सप्तमिकेति तासा निवोध
लिङ्गान्यनुपूर्वशस्तु ||
( सु ३४८ )
२ सर्वास्त्वतिप्रसक्ता रोगकृशाना वमिप्रयुक्तानाम् । घोरोपद्रवयुक्तास्तृष्णा मरणाय विज्ञेया ॥ ( च चि २२ )
३. अपा क्षयाद्धि तृष्णा सशोष्य नर प्ररण । शयेदाशु | तस्मादन्द्र तोय समधु पिबेत् तद्गुण वाऽन्यत् ॥ किंचित्तुवरानुरसं तनु लघु शीतलं सुगन्धि सुरसञ्च । अनभिष्यन्दि च
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यत्तत्क्षितिगतमप्यैन्द्रवज्ज्ञेयम् ॥ ( च चि २२ )